मंगलवार, अगस्त 25, 2009

सुगंधा

छोटा परिवार सुखी परिवार....कुछ ऐसा ही था आशीष और नेहा का परिवार - वो दो और उनकी एक फूल सी बच्ची सुगंधा. पर कहते हैं की सुख और शान्ति किसी के भी पास ज्यादा समय तक नहीं टिकती है, कभी न कभी दुःख की लहर आती है और सब कुछ बह जाता है. आशीष के परिवार में भी एक रोज़ दुःख की लहर ने दस्तक दे ही दी और उस दिन से उसका सुखी परिवार तिनके की तरह बिखर गया.
सुगंधा 11 वीं कक्षा में थी जब एक रोज़ घर लौटते हुए आशीष की motercycle को एक ट्रक ने टक्कर मार दी. आशीष को बहुत ही गंभीर चोटों के साथ सरकारी अस्पताल के आपातकाल में भर्ती कराया गया.
2 साल हो गए हैं आशीष को उस्सी हालत में घर पर पड़े हुए. न ज़िन्दगी आती है न मौत आती है. न जाने साँसों के कौन से धागे ने उसके शरीर को अब तक थाम रखा है?
जो कुछ भी पैसा आशीष ने अब तक जमा किया था वो उसके इलाज में लग चुका था. नेहा बस 5 वीं कक्षा तक पढ़ी हुई थी तो उसको भी कहीं नौकरी नहीं मिलती थी, मजबूरी में होने के कारण वो घर से थोडी ही दूर कुछ कोठियों में घर का काम करने लगी थी जिससे की घर का खर्च निकल जाता था. प्रेम विवाह होने के कारण घर वाले तो बहुत पहले ही सारे रिश्ते तोड़ चुके थे इनसे तो उनके यहाँ भी नहीं जा सकते थे मदद मांगने.
सुगंधा पैसों के अभाव के चलते पढाई नहीं कर पा रही थी पर उसको पढने की बहुत इच्छा थी. माँ को रोज़ दूसरों के घर में काम करते उसको अच्छा नहीं लगता था और घर में पिता की जिंदा लाश देख देख कर रोना आता था. पर कोई क्या कर सकता है - जब-जब जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होता है.
एक दिन सुगंधा को कहीं से पता चला कि किसी Domestic BPO में जगह खाली है. ज़िन्दगी के इतने थपेडे खा खा कर सुगंधा में आत्मविश्वास बहुत आ गया था तो उसको नौकरी मिलने में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. तनख्वा बहुत ज्यादा तो नहीं थी पर हाँ वो अपना खर्चा निकालने लग गयी थी और जो उसका पढाई करने का सपना था वो भी उसने मुक्त विश्वविद्यालय से पूरा करना शुरू कर दिया और घर चलाने में माँ की मदद भी करने लगी. कुछ रोज़ के बाद जो कुछ साँसें आशीष को बांधे हुई थीं वो भी छूट गयीं.
सुगंधा ने बहुत मेहनत की और कुछ ही समय में उसकी लगन और इमानदारी के चलते उसको Team Leader बना दिया गया. अब नेहा ने भी घरों में जा कर काम करना बंद कर दिया है, उसने अपने ही घर में सिलाई कि कुछ मशीनें रख लीं हैं और अपना खुद का काम करती है और साथ ही में उसकी तरह बेसहारा औरतों को काम सिखाती है और उनको उनके पैरों पर खड़े होने में मदद करती है.

किसी ने सही कहा है - पतझड़ के बाद आते हैं दिन बहार के, जीना क्या जीवन से हार के....

--नीरज

रविवार, अगस्त 23, 2009

ज़िन्दगी

क्यों होता है ज़िन्दगी में अक्सर
किनारे जो पास नज़र आते हैं
वो ही अक्सर दूर चले जाते हैं.
किनारे पे रह जाते हैं कुछ घिसे
बेजान पड़े चिकने पत्थर.

रात को आसमान में देखो तो
बस एक गहरी तन्हाई नज़र आती है.
तन्हाई में चाँद छूने को हाथ बढ़ता है
मगर हाथ बस मायूसी ही आती है.

बेरुखी खुद से ही ना जाने कैसे हो गयी
हम हम न रह सके हम मैं में खो गए.
आईने ने पुछा दिल का रास्ता हमसे
ग़म नशीं हुए इतना कि रास्ता भूल गए.

पथराई नज़रों से देखता रहा दीवार को,
आँखें तकती रहीं नीर बहता रहा.
हम कोसते रहे किस्मत को यहाँ,
रात कटती रही सांस जाती रही.

--नीरज

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

Mou



छोटी सी एक प्यारी सी,
नन्ही सी राज दुलारी सी.

एक गुडिया घर में आई थी,
mou नाम से उसे बुलाई थी.

थोडी चुप-चुप, कुछ शरमाई सी,
भोली भाली, कुछ घबरायी सी.
मिठास शहद सी लायी थी,
mou नाम से उसे बुलाई थी.

अजय हुई तू एक पवन है,
निडर खड़ी तू एक गगन है,
ज़िंदगी में मौसुमी लायी है,
mou नाम से उसे बुलाई है.

--नीरज

बुधवार, अगस्त 19, 2009

आखरी जाम हो तो कुछ ऐसा हो....




हर एक सांस हर पल कम हो रही है,
ज़िन्दगी मैकदे में जाम बन रही है.

न कोई गम हो, न गिला, न शिकवा कोई
दोस्त हों आघोष में मेरे, न हो दुश्मन कोई
शिकन न हो चेहरे पे मेरे, न हो खौफ कोई
न शिकायत हो किसी से, न उधारी कोई
तमन्नाएँ अधूरी न रह जाएँ कोई
सिसकियाँ न हों मेरे जाने पे कोई
मोहब्बत के तमगे लगे हों कफ़न पे मेरे,
ज़िन्दगी का आखरी जाम हो तो कुछ ऐसा हो....

--नीरज

शनिवार, अगस्त 15, 2009

आज़ाद देश है मेरा यारों

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस पर बहुत बहुत बधाई.




यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

बीते हैं दिन वो नारों के,
लहू में बहते अंगारों के,
सूखे हैं मेहनत के रेले,
यहाँ रात चली है चमक-चमक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

सूख हरी-हर ईंट उगी है,
धुँए की चादर बहुत बड़ी है,
महंगाई के हैं छाले,
यहाँ चाँद छुपा है दुबक-दुबक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

आकाश को छूकर आये हैं हम,
परमाणु शक्ति कहलाये हैं हम,
खुशियों के मौके हैं सारे,
यहाँ ढोल बजाओ धमक-धमक

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

चश्मदीद है सूली चढ़ता,
जेल के बहार खूनी रहता,
आज़ाद देश है मेरा यारों,
यहाँ नाचो गाओ ठुमक-ठुमक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

--नीरज

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

हबीब

आशकार करो चाहे जितना,
अफ़कार मिटा दो चाहे जितना.
मुंतज़िर बैठे हैं राहों में तेरी,
अलहदा करदो चाहे जितना।

रम्ज़-शिनास थे तुम हमारे,
ग़म-गुसार थे तुम हमारे.
क्या हुआ जो चल दिए यूँ,
रकीब तो न थे तुम हमारे?

गुल तो यूँ रोज़ मिलते हैं,
ख़ार बस किस्मत से मिलते हैं.
दामन थाम ले जो तेरा कभी,
ऐसे गुल बता कहाँ मिलते हैं?

पिलाने वाले तो बहुत आयेंगे,
नज़रों के साकी फिर आयेंगे.
रह जाओगे तकते हमे तुम,
जानिब हम तुम्हारे फिर न आयेंगे.

--नीरज

अफ़कार = Thoughts
आशकार = Zaahir
मुंतज़िर = intzar karne wala
अलहदा = Alag
रम्ज़-शिनास = One who understands hint, intimate friend
ग़म-गुसार = Comforter
रकीब = Rival
गुल = phool
ख़ार = kaanta, thorn