शनिवार, अगस्त 12, 2017

मुक्कमल ख़्वाब


आज दराज़ में जब कुछ लम्हे टटोले,
तो हाथ मेरे कुछ पुर्ज़े लगे.
कुछ ख़्वाब का चश्मा चढ़ाये,
तो कुछ हकीकत से भरे साथ खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो रंगीन थे,
हकीकत के दो रंग में संगीन थे,
एक को हसरत थी कायम होने की,
दूसरे खामोशी से बस मुस्कुराए खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो किस्मत को कोस रहे थे,
और दो रंगी, किस्मत का हाथ थामे खड़े थे.
हाथ बढ़ाया है आज ख़्वाबों की तरफ उन्होंने ,
मुक्कमल हों अब वो शायद जो न जाने कब से
हकीकत से महरूम एक कोने में पड़े थे.

--नीर