बुधवार, जून 17, 2009

भूख और भिखारिन




भिखारिन -

मैं न रोई, न चीखी-चिल्लाई,
हर रात मैंने कुछ यूँ ही बिताई.
गुमसुम सी, निढाल पड़ी रही,
सितारों के संग मैंने रात जिमाई.

सुबहो का कोलाहल बुदबुदाता रहा,
कानों में पड़कर मेरे छटपटाता रहा.
कुछ लोग घेरे खड़े थे मुझको,
मौत मेरे कटोरे में देख ज़माना मुस्कुराता रहा.

भूख -

मैं भूख तेरी भी हूँ उसकी भी
फर्क बस इतना है - मुझे
मिटाने का तेरा जुनून बस
पल भर का होता है.
और उसका जुनून रात के
साए में भी कायम रहता है.
हर सांस पर मेरा साया,
गहरा होता जाता है.
उसका जुनून फिर भी कम नहीं होता,
हर क्षण पेट भीतर धसता जाता है.

--नीरज

गुरुवार, जून 11, 2009

मुशायरा

स्याह रात में चिराग जलाए बैठे हैं,
इंतज़ार में उनके दिल बहलाए बैठे हैं.

आँखों के मैय्कदे अब बंद नहीं होते,
यादों के पैमाने गालों पे संजोए बैठे हैं.

हर एक सितारे में तुझे ढूँढा है मैंने,
जो मिली तो पलकों में छुपाए बैठे हैं.

तेरी एक गुलाब सी ख़ुशी की खातिर,
अब तक काँटा दिल में चुभाए बैठे हैं.

मेरे मैय्कदे के चिराग मद्धम हो चले,
बस उनकी दीद की बातें बनाए बैठे हैं.

तेरी यादों के साए में सर रखके लेटा हूँ,
लोग शमशान में *मुशायरा सजाए बैठे हैं.

गर वो कभी पूछें की क्या हुआ, तो कहना,
"नीर" ठहर गया, लोग भाप उड़ाए बैठे हैं.

शमशान में मुशायरा - अंतिम संस्कार और मुशायरे में कोई ख़ास फर्क नहीं होता, दोनों में लोग आते हैं, मंच पर उपस्थित कवी की कविता के पूर्ण होने पर उसकी बातें करते हैं, तालियाँ बजाते हैं, घर जाते हैं और भूल जाते हैं.

--नीरज

बुधवार, जून 10, 2009

समय

याद करोगे जब मैं गुज़र जाऊंगा,
न आऊंगा न मैं फिर मिलूँगा.
ढूंढोगे सब गली-गली तब मुझको,
मैं चाँद अमावास का हो जाऊंगा.

बह जाऊँगा हाथ से तुम्हारे मूक होकर,
महसूस होऊंगा मैं तुमको बस ताप बनकर.
हाथ तुम्हारे, नाम मेरा होगा करनी पर,
कोसोगे मुझको तुम मेरे स्वामी बनकर.

मत मेरा तुम यूँ उपहास करो,
तुम उठो मेरा शीघ्र एहसास करो.
मुझे यूँ व्यर्थ गँवा कर हर पल,
अपने काल का न यूँ आह्वान करो.

तुम्हारी साँसें भी मेरे दम पे चलती हैं,
किस्मत भी मेरे आगे झुकती है.
शक्ति भी मैं हूँ जीवन की,
देह भी मेरे राह पे चलती है.

मैं समय हूँ, मैं काल हूँ, मैं बलवान हूँ,
ये घमंड नहीं मेरा ये चेतावनी है तुमको,
मत व्यर्थ करो, उपयोग करो,
ये अंतिम चेतावनी है मेरी तुमको.

--नीरज

सोमवार, जून 08, 2009

ऐसी ही आवाज़ मुझे सुनाई देती है

इंसान आज इंसान से भागे फिरते हैं,
भगवान तेरे बन्दे तुझसे भागे फिरते हैं.

माथे पे टीका, हाथों में माला,
दिल काजल से साने फिरते हैं.

मुँह में राम बगल में गुप्ती,
मुक्ति की माला फेरते फिरते हैं.

सुबह तेरा नाम जपते उठते हैं,
दिन भर गालिओं की प्रत्यंचा खींचते फिरते हैं.

तेरे दर पे आती आवाजों में आजकल,
भक्ति से ज्यादा इच्छा की गूंझ सुनाई देती है.
ऐसे आस्तिकों से में नास्तिक भला हूँ.
माफ़ करना ख़ुदा, ऐसी ही आवाज़ मुझे सुनाई देती है.

-- नीरज

रविवार, जून 07, 2009

ए लाल मेरे

Ek gaaon mein rehne wali maa ki bhaavnaaon ka chitran karne ki koshish ki hai jab wo gareebi aur gaaon mein sookhe aur aakal ki stithi mein apne bacche ko doodh nahin pilaa paati aur shishu ko apni god mein le kar bheegi hui aankhon se bas nihaar rahi hai aur usko apne dil ki vyatha samjhaane ki koshish kar rahi hai.



क्या पिलाऊं मैं तुझे ए लाल मेरे,
दूध मेरा तू पी चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

भूख तेरी कैसे मिटाऊं ए लाल मेरे,
अन्न ख़त्म हो चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

आसमान फटता नहीं ए लाल मेरे,
नीर सारा सूख चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

अश्रु पीले तू मेरे ए लाल मेरे,
ये भी काफी बह चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

यूँ न मुझ को छोड़ अधूरा ए लाल मेरे,
5 की आहुति से देह मेरा जल चुका है,
और एक कफ़न मैं क्या कर सिलाऊं?
और दूध में क्या कर बनाऊं लाल मेरे?

--नीरज

गाँव और मैं

आसमान मेरा कुछ मटमैला सा हो गया है,
चाँद तारे कृत्रिम जगमगाहट की सिलवटों में खो गए।
पेड़ की छाँव, वो कुएं का पानी,
AC और refrigerator की चाह में बह गए।

सोंधी बारिश की वो खुशबू अब कहीं आती नहीं,
concrete की मंजिलों में लुप्त हो कर रह गया हूँ।
गाय का वो दूध ताजा अब कहीं मिलता नहीं,
थैली के दूषित दूध पर आश्रित हो कर रह गया हूँ।

खेत की ताज़ी सब्जी का स्वाद भी अब जाता रहा,
बासी सब्जी में ही अब मज़ा मुझ को आता रहा।
चूल्हे की रोटी का स्वाद, दाल में मिट्टी की खुशबू,
खो गया है सब जहान से, याद कर दिल भिगोता रहा।

--नीरज

गुरुवार, जून 04, 2009

मेरा खुदा

ज़िन्दगी के मेले में हम भी मोहबत सजाए बैठे हैं,
दीद में उनकी हम भी आस लगाए बैठे हैं.

ख्वाब की चादर पे कभी आना ए हमनफ़स,
मेरे चाँद में भी ठंडक है और दाग लगाए बैठे हैं.

तिजारत की इस दुनिया में मोल की कमी नहीं,
हम हर सांस तेरे आने की आस से सजाए बैठे हैं.

तेरी इस बस्ती में अब खुदाई कहाँ है,
हम तो तेरे नाम को सीने में छुपाए बैठे हैं.

इबादत में ये हाथ बस तेरे ही उठते हैं,
तेरे आने की राह में पलकें बिछाए बैठे हैं.

अहम् में बहने वाले यूँही बह जाया करते हैं "नीर",
हम तो इंसानियत को अपना खुदा बनाए बैठे हैं.

--नीर