वो गलियाँ जो कभी हाथ पकड़ कर मेरा,
मुझ में समां जातीं थीं, कहतीं थीं मुझे
कि वो मेरी और मैं हूँ उनका।
आज लौटा हूँ शहर कई अरसे बाद जब,
हर गली, हर चौराहे, हर इमारत पे,
एक अजीब सा, बदरंगी, मटमैला सा
नकाब चढ़ा है।
क्या ये तू ही है जो कहता था कि
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।
पहुंचा गली में अपनी मैं जब,
मूह कुछ इस कदर फेर लिया
मानो कोई बदतमीज़, बेगैरत
घुस आया है।
क्या ये तू ही है जो कहती थी कि
तू मेरी और मैं हूँ तेरा।
पहुंचा घर में अपने मैं जब,
अन्धयारी तब छाई थी बस, सन्नाटा वो ले आई थी,
आँगन में कुछ छींटे थे, दीवारों पे रेले थे,
क्या तू वो ही घर है जो कहता था कि
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।
--नीरज