रविवार, मई 08, 2022

बेड़ी



बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।
पंखों को खुद ही मैंने,
बांध किनारे रखा है।
कमरा है ताबूत के जैसा,
घुप अंधेरा, सन्नाटा है।
बैठ गया अब आके इसमें,
चाबी कहीं फेंक आया हूं।
बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।

हर सहर-सहर मैं, सिहर-सिहर के,
हक्का-बक्का जागा हूं।
सन्नाटे के शोर में खुद को
जाने कहां खो आया हूं।
आशाओं की चादर है पर,
किसी और को उड़ा आया हूं।
बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।

-- नीर

रविवार, अप्रैल 10, 2022

भीड़ कभी मुझे खींच न पाई

भीड़ कभी मुझे खींच न पाई,

और अकेलापन कभी छोड़ न पाया।

मेरा हमनफस सदा मैं ही रहा,

मेरा हमनवा कोई कभी बन न पाया।


जाम तो बहुत भरे साकी ने यूं तो,

हलक के नीचे कभी उडेल न पाया,

मैं को में में झोंकता रहा,

मैकशी में से निभा न पाया।


--नीर