यूँ तिरछी नज़रें क्यूँ कर देखते हो,
सरकार की नज़रों का नूर हूँ मैं.
कहने को आशियाना बनाते है घोसला तोड़ कर,
घोटाले में फंस, फिर घोंसले में बस जाता हूँ मैं.
चुनावों में सियासी नज़रों का नूर हूँ,
बाद में मनहूस नासूर बन जाता हूँ मैं.
इलाज, कहने को मुफ्त देता है हॉस्पिटल,
दवाईओं के दाम पे पस्त हो जाता हूँ मैं.
खाने को राशन भी सस्ता मिलता है हर महीने,
राशन के इन्तेज़ार में ध्वस्त हो जाता हूँ मैं.
पीड़ ये दिल की कई बहरों को सुना चुका,
सुनने वालों की आस में आज भी गाता हूँ मैं।
--नीरज