छोटी छोटी आँखों से उम्मीद
को रोज़ झांकते देखता हूँ,
आस के चमकीले कणों से
सने हाथ छिले देखता हूँ.
अंगार सी सड़क पे नंगे पैर
बचपन झुलसते देखता हूँ,
थर-थराती सर्दी में नंगे
जिस्मों को सिकुड़ते देखता हूँ.
नन्हे कंधे स्कूल के बस्ते से नहीं
मजदूरी के बोझ से झुके देखता हूँ.
पैसे की हवस में इंसान को
इंसान का दलाल देखता हूँ.
कर नहीं पता कुछ इनके लिए,
हाथ अपने लाचारी से बंधे देखता हूँ.
--नीरज
बुधवार, अक्टूबर 21, 2009
शुक्रवार, अक्टूबर 16, 2009
-- शुभ दीपावली --
रौशनी का पर्व है आया
इस वर्ष फिर से.
घर-घर, गली-कूचे
रंगों से चमके हैं
रौशनी से दमके हैं.
गली-कूचे कुछ ऐसे भी हैं
जो चमके हैं न दमके.
आओ रौशनी का एक दिया
उस अँधेरी चौखट पे रखदें.
कुछ अँधेरी ज़िन्दगियों को
इस पर्व पे रोशन करदें.
-- शुभ दीपावली --
--नीरज
मंगलवार, अक्टूबर 06, 2009
एक ख्वाब...एक सवाल...एक दुआ...
ए महबूब मेरे तू मेरी यादों में है,
मेरे ज़हन में है, मेरे ख्यालों में है.
पहर दर पहर यूँही गुज़र जाते हैं,
तू ज़बान में है, मेरी आँखों में है.
परेशान सी है कुछ मैंने सुना है,
घर लाने का तुझे सपना बुना है.
डरता हूँ समाज से अपने मैं भी,
ज़िक्र पे तेरे मैंने फिकरा सुना है.
हर चेहरे में हर आँखों में ढूंढता हूँ,
फिज़ा में, हर आँचल में ढूंढता हूँ.
चेहरे पे मुखोटे, आँखों में जलन है,
मेरे ईमान हर डगर बस तुझे ढूंढता हूँ.
लुटती हैं अस्मतें सरे आम यहाँ पर,
मुर्दा है ज़मीर इंसान का जहां पर.
टीस दिल की यहाँ कोई समझता नहीं
महबूब मेरी इंसानियत तू है कहाँ पर?
--नीरज
मेरे ज़हन में है, मेरे ख्यालों में है.
पहर दर पहर यूँही गुज़र जाते हैं,
तू ज़बान में है, मेरी आँखों में है.
परेशान सी है कुछ मैंने सुना है,
घर लाने का तुझे सपना बुना है.
डरता हूँ समाज से अपने मैं भी,
ज़िक्र पे तेरे मैंने फिकरा सुना है.
हर चेहरे में हर आँखों में ढूंढता हूँ,
फिज़ा में, हर आँचल में ढूंढता हूँ.
चेहरे पे मुखोटे, आँखों में जलन है,
मेरे ईमान हर डगर बस तुझे ढूंढता हूँ.
लुटती हैं अस्मतें सरे आम यहाँ पर,
मुर्दा है ज़मीर इंसान का जहां पर.
टीस दिल की यहाँ कोई समझता नहीं
महबूब मेरी इंसानियत तू है कहाँ पर?
--नीरज
सोमवार, अक्टूबर 05, 2009
कश्मीर
चांदी सी रोशन वादी
सुर्ख लाल हो गयीं हैं,
सरहदें जोड़ती झेलम,
वादी में मौन हो गयी है
रहती थी जो अमन से यहाँ
जाने कहाँ वो शान्ति खो गयी है.
लगी है शायद नज़र कांगडी को
आंच से वो अब अंगार हो गयी है.
डल के शिकारों से बहती मोहब्बत
जिहाद का शिकार हो गयी है.
रोक दो जिहाद इंसानियत के खातिर
वादी ये अपनी रंग हीना हो गयी है.
कितना खुशगवार होगा नज़ारा जब-
डल में फिर शिकारे चलेंगे.
सड़कों पे लोग बे-खौफ चलेंगे.
Curfew बिना ईद पर गले मिलेंगे.
फिर गूंझेगी कल-कल झेलम की,
सफ़ेद चादर में लिपटी इस वादी में.
--नीरज
सदस्यता लें
संदेश (Atom)