शनिवार, जनवरी 30, 2010
सुबह की कटारी से रात काटी है
स्याह रात तेरी याद में काटी है.
सुबह की कटारी से रात काटी है.
मुस्कुराता हूँ देख के तुझे यूँ,
जैसे छत्ते से मैंने शहेद चाटी है.
खोई हो सिलवटों में ज़िन्दगी की,
मैंने उम्र एक गिरह में काटी है.
लिख-लिख के थक गया हूँ तुझे,
कागज़ की सिल पे याद बाटी है.
फिसल गए हैं हम ज़िन्दगी से,
जैसे दिल नहीं,चाक की माटी है.
-नीरज
बाटी - पीसने को भी बोलते हैं. जैसे की पत्थर की सिल पे चटनी बाटना.
रविवार, जनवरी 24, 2010
घुंघरू
कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं
कुछ टूटी, कुछ झड़ी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की इमारत पे.
दरवाज़े पे हुई नक्काशी अब कुछ
झड सी गयी है,
छतों पे जड़े झूमर भी अब कुछ
टूट गए हैं, कुछ लदक गए हैं.
वो सफ़ेद चादरें, जो लाल कालीन
की शोभा बढाया करतीं थीं,
अब किसी कोने में मुच्डी पड़ी हैं.
आज भी छम छम की आवाजें
इन दीवारों से आती हैं.
कुछ टूटे घूंगरू आज भी
रंग महल में बिखरे पड़े हैं.
गजरे से गिरे फूल आज भी
रंग महल को महका रहे हैं.
कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की चादर पे.
नवाबों का राज ख़त्म हो गया,
और यहाँ की रंगत खाख हो गयी.
ये रंगीन गलियां, ये चौराहे भी अब
तंग गलिओं में जा बस गए.
पर ख़त्म नहीं हुआ तो बस नज़रिया.
न जाने कब हमारे बच्चे फक्र
से सभी के साथ पढ़ा करेंगे?
लोग तिरछी निगाहों से नहीं देखेंगे?
पैदा होते ही लड़की की रूह नहीं मारेंगे?
कुछ थकी, कुछ दर्मन्दाह सी मैं,
लाई हूँ सवालों को ख़ुदा तेरे दर पे.
दर्मन्दाह - Helpless
--नीरज
सोमवार, जनवरी 18, 2010
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग ...
यह मेरी और मेरी मित्र वंदना की सांझी नज़्म है....
सच होता निलाम देखूं ...या झूठ के लगते दाम देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखू
धर्म पे लगते बाजार देखूं ,संक्रमण सा फैला भ्रस्टाचार देखूं
लहराती फसल देखूं या देश में उगती खरपतवार देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
त्यौहारों के सजे पंडाल देखूं, हर गली में मचा हाहाकार देखूं
ललाट पे सजता सिन्दूर देखूं या खून सने हाथ लाल देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
.
नन्हे हाथों में औजार देखूं, गंगन चुम्बी मीनार देखूं
देश का विकास देखूं या भविष्य की ढहती दीवार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
बुराई के चक्रव्यू में फसां खुद को अभिमन्यु सा लाचार देखूं .
कोरव सी सेना पर इतराऊं या अंधे की सरकार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
सच को होता निलाम देखूं ..या झूठ के लगते दाम देखू
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
सच होता निलाम देखूं ...या झूठ के लगते दाम देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखू
धर्म पे लगते बाजार देखूं ,संक्रमण सा फैला भ्रस्टाचार देखूं
लहराती फसल देखूं या देश में उगती खरपतवार देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
त्यौहारों के सजे पंडाल देखूं, हर गली में मचा हाहाकार देखूं
ललाट पे सजता सिन्दूर देखूं या खून सने हाथ लाल देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
.
नन्हे हाथों में औजार देखूं, गंगन चुम्बी मीनार देखूं
देश का विकास देखूं या भविष्य की ढहती दीवार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
बुराई के चक्रव्यू में फसां खुद को अभिमन्यु सा लाचार देखूं .
कोरव सी सेना पर इतराऊं या अंधे की सरकार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
सच को होता निलाम देखूं ..या झूठ के लगते दाम देखू
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
--नीरज & वंदना
शुक्रवार, जनवरी 15, 2010
Ethunasia - Mercy Death
ये कृति एक Spanish फिल्म Mar Adentro जिसका मतलब है The Sea Inside से inspired है. जिस में की नायक Quadriplegia का शिकार होता है और 30 साल कोर्ट में ethunasia के लिए लड़ता है और अंत में हार जाता है.
*Quadriplegia = एक ऐसी बीमारी जिस में की गर्दन से नीचे का शरीर काम करना बंद कर देता है.
*Ethunasia = Mercy Death के नाम से भी इसको जाना जाता है. जिस में की पीड़ित को ज़हर का injection देकर मौत दे दी जाती है.
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चुभते, सताते, कुल-बुलाते
ज़िन्दगी के 30 साल इस
बिस्तर पे यूँहीं गुज़र गए.
सागर की फिजा, छोटी सी
उस खिड़की से बहकर यादें
ताज़ा करने चली आती है.
ज़िन्दगी रोज़ मौसम बदलते
देखती है और हर रात,
मौत मांगने चली आती है.
30 साल बिस्तर पे पाला
घरवालों ने मुझको और
अपनी ख़ुशी खाख करदी.
मैं मौत के रूप में खुशियाँ
मांगता रहा उनकी, न्याय
ने उसको भी राख करदी.
मेरे पैर में थिरकन हुई है
मेरे हाथ फिर हिले हैं.
छलांग मारी है उस खिड़की
से और उड़ चला हूँ दूर बहुत दूर,
इस अथाह सागर के ऊपर से उड़
चला हूँ दूर बहुत दूर.
वो खिड़की से आती फिजा अब
मुझ में भरी जा रही है,
लगता है ज़हर ने मेरी
दुआ कबूल कर ली.
--नीरज
मंगलवार, जनवरी 12, 2010
पल
इक अकेली शाम से कुछ पल तेरे,
अपने लिए चुन लिए थे मैंने,
उस आधे घंटे की मुलाकात में
कई ख्वाब बुन लिए थे मैंने.
कजरारी आखों से तेरी कुछ
सुनहरे पल समेट लिए थे मैंने.
थर-थराते गुलाबी लबों से तेरे,
बिखरते लफ्ज़ चुन लिए थे मैंने.
गालों पे फैलती-सिमटती लाली को,
सहेज के दिल के पन्नों में रख लिए थे मैंने.
तेरे जुल्फों को संभालते पलों को,
इस शाम की माला में पिरो लिए थे मैंने.
इस शाम के गुज़रे पलों को मैंने,
सहेज कर, शाम की माला में पिरो के
याद की मेज़ पर रख लिया है.
न जाने ये शाम कभी लौटे न लौटे.......
--नीरज
सोमवार, जनवरी 11, 2010
School की कुछ यादें.....
शर्ट पे सेफ्टी-पिन से लगा रुमाल,
गले में वाटर बोतल,
पीठ पर एक भारी बसता.
अब भी वो दिन याद आते हैं.
वो रबर-पेंसिल पर लड़ना झगड़ना,
झूले से गिर के फिर उठना,
हर बात पर मैडम से शिकायत.
अब भी वो दिन याद आते हैं.
पढने के नाम पर बहाने बनाना,
किताब के अन्दर कॉमिक को पढना,
हिस्ट्री के पीरियड में टिफिन खाना.
अब भी वो दिन याद आते हैं,
काश के कोई लौटा दे वो
मासूम दिन, पढाई की रातें,
गर्मी की छुट्टी, वो माँ की डाँटें
काश को कोई लौटा दे एक बार.....
--नीरज
रविवार, जनवरी 10, 2010
याद
वो मंज़र कभी याद आते हैं ,
कभी आँखों से बरस जाते हैं.
रह जाते हैं ठहर कर गालों पर,
मुस्कान बन बिखर जाते हैं.
दिन भर रहते हैं संग मेरे,
रात में तारे बन जगमगा जाते हैं.
चुभते हैं दिन भर दिल में मेरे,
रात होते ही महेक जाते हैं.
उठते हैं अंगार बनके ज़हन में,
राख बनके बिखर जाते हैं .
--नीरज
बुधवार, जनवरी 06, 2010
त्रिवेणी 2
बोने से बबूल आम नहीं मिलते कभी,
खार से तो बस हाथ ही छिला करते हैं.
सुना है पडोसी देश आतंकवाद का शिकार है.
*************************
घूमता है कुम्हार का चाक जब
कितना हुनर बिखेर देता है जग में.
ये बता ए वक़्त तेरा कुम्हार कहाँ बस्ता है?
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खिंच जाते हैं जब कुछ बाण तरकश से,
छूट ही जाते हैं वो धनुष से अक्सर,
शब्दों ने भी मेरे शिकार करना सीख ही लिया है.
--नीरज
सोमवार, जनवरी 04, 2010
त्रिवेणी
चांदनी है जब तक ज़मीन पर कोई चाँद को देखता तक नहीं,
जो आजाती है अमावस बीच में, चाँद की कमी खलने लगती है.
रिश्तों ने भी आज कल कुछ यूँही घटना बढ़ना सीख लिया है.
*************************************
रवि इत्मिनान से आता है आज कल,
चाँद 14 घंटे मशक्कत करता है.
गरीब के ठिठुरने के दिन आ गए हैं.
--नीरज
जो आजाती है अमावस बीच में, चाँद की कमी खलने लगती है.
रिश्तों ने भी आज कल कुछ यूँही घटना बढ़ना सीख लिया है.
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रवि इत्मिनान से आता है आज कल,
चाँद 14 घंटे मशक्कत करता है.
गरीब के ठिठुरने के दिन आ गए हैं.
--नीरज
शनिवार, जनवरी 02, 2010
सुनहरे ख्वाब
आसमान के सितारे हर रात उतर के
मेरी आँखों में झिलमिलाने चले आते थे,
चाँद रोज़ उतर के थपकी देता था, फिजा
लोरियां सुनाती थी.
कई ख्वाब फलक से तोड़े थे वहां पर.
रात की बेहोशी में मैंने कुछ ख्वाब
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो सवेरे ने ख्वाब के
कुछ चमकीले टुकड़े गिरह में लपेट के
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो सवेरे ने ख्वाब के
कुछ चमकीले टुकड़े गिरह में लपेट के
तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
कभी जो जाओ तुम उस बूढ़े मकान में
जो आज भी वृधाश्रम के बूढ़े की तरह
अपने बच्चों की राह तक रहा होगा,
तो वो ख्वाब उन्ही गिरहों में लपेटे हुए
लेते आना और फिर एक बार मेरे
सिरहाने रख देना,
मेरा ताबूत जगमगा उठेगा.
--नीरज
ख्वाब
रात की बेहोशी में मैंने कुछ ख्वाब
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो बेहोशी ने ख्वाब के
चमकीले टुकड़े तकिये के सिरहाने
रख छोड़े थे.
--नीरज
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