ज़िंदगी बस यूँही धुआं हो गयी,
शोलों की आग न जाने कब ठंडी हो गयी.
साहिलों पे पड़े थक गए पत्थर,
लेहेर न जाने कब परायी हो गयी.
रिस्ता रहा हर ख्वाब पल दर पल,
सफ़ेद किताब न जाने कब काली हो गयी.
कभी न बुद-बूदाया नाम तेरा मैंने,
खुदा तेरी न जाने कब खुदाई हो गयी.
मिलते जो थे राहगीर अक्सर तुझे 'नीर'
राहों से उनकी न जाने कब जुदाई हो गयी.
--नीर
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंआपकी शानदार प्रस्तुति पढ़ने का मौका मिला,
Bahut bahut shukriya Sanjay ji :)
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