मंगलवार, अक्तूबर 20, 2020

मेरा घर बिक रहा है


 खिड़की, दरवाजे, ताले कुण्डी,

हर कमरा, हर दीवार, 

हर दीवार पे लगी पुताई की परत,

सब की बोली लगाई गई है साहब,

जो नोच सको वो नोचलो,

जो खरोंच सको वो खरोंच लो।

सरे बाज़ार खड़ा है आज मेरा घर,

क्योंकि मेरा घर बिक रहा है।


रात-रात, जाग-जाग, पिघल-पिघल,

कभी ठिठुर-ठिठुर,

बचा-बचा, कभी दबा के भूख,

जोड़ा था एक-एक फर्नीचर मैंने,

जोड़े थे मैंने चम्मच कटोरी।

वो खींच-खींच जो रखते हैं,

वो पटक-पटक जो देते हैं।

वो क्या जानें कि कितनी जागी

रातें दे पटकी हैं।

वो क्या जानें कि कितनी सांसें

ज़मीन पे आ छिटकी हैं।

उनका क्या जाता है साहब,

ये तो मेरा घर बिक रहा है।


तमाशगीन सा मेरा परिवार

खड़ा है एक कोने में,

तमशगीन सा मेरा मोहल्ला

खड़ा है गली के नुक्कड़ पे।

न जाने किस काले चश्मे में

छुपाए आंखें अपनी,

बोली लगते देख रहा है।

तुम सब भी ठेले जाओगे,

हवा में उछाले जाओगे।

फर्क नहीं तुम्हें अभी कुछ पड़ रहा है,

क्योंकि अभी तो बस मेरा घर बिक रहा है।


-- नीरज

2 टिप्‍पणियां:

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