शुक्रवार, नवंबर 17, 2017

सन्नाटा



ज़िंदगी बस यूँही धुआं हो गयी,
शोलों की आग न जाने कब ठंडी हो गयी.

साहिलों पे पड़े थक गए पत्थर,
लेहेर न जाने कब परायी हो गयी. 

रिस्ता रहा हर ख्वाब पल दर पल,
सफ़ेद किताब न जाने कब काली हो गयी. 

कभी न बुद-बूदाया नाम तेरा मैंने,
खुदा तेरी न जाने कब खुदाई हो गयी. 

मिलते जो थे राहगीर अक्सर तुझे 'नीर'
राहों से उनकी न जाने कब जुदाई हो गयी. 

--नीर