गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

बंसी का भूत




अरे कनहिया....कनहिया! जा तो जल्दी से झुम्मन चाचा को बुला कर ला.

(कुछ देर में कनाहिया वापिस आता है झुम्मन चाचा के घर से...)

मालिक, चाचा तो मिले नहीं वो पास ही गाँव में किसी को झाड़ा देने गए हैं, तो 1 घंटे में वापिस आ जायेंगे. छोटे चाचा ने कहा है की मझले भैया को वहीं ले आओ तो जैसे ही चाचा आयेंगे वो तुरंत झाड़ा दे देंगे.

(प्रेम नगर गाँव में और आस पास के सभी गाँव में झाडा, भूत बाधा हटाने के लिए झुम्मन चाचा बहुत मशहूर थे, हर दूसरे दिन कोई न कोई उनके दरवाज़े पे खड़ा रहता था हाथ में कुछ पैसे लिए और अपने रिश्तेदार के साथ की चाचा इलाज कर देंगे. कभी कभी तो मैं सोचने पे मजबूर हो जाता था की इस को प्रेम नगर क्यों बोलते हैं? इस को तो प्रेत नगर बोलना चाहिए.)

अरे मझले ! क्या हुआ इसे? ये फिर से मरघट के सामने से गुज़र गया? कितनी बार समझाया है की वहां से मत जाया कर पर ये कहाँ मानने वाला है.

अब चाचा क्या बताऊँ बड़ा भाई होने के नाते समझा के देख लिया पर इस को कुछ समझ नहीं आता. अब की बार बंसी की आत्मा आई है. सब कुछ सही सही बोल रहा है चाचा, घर पर तो कुछ ऐसी बातें बोल दीं इस कमबख्त बंसी की आत्मा ने की रात को मुझ पर बीवी का भूत सवार होने वाला है. तभी मैं जल्दी से आपके पास ले आया. अब बस आप जल्दी से मेरे भाई को ठीक कर दो तो मैं चैन की बंसी बजाऊँ.

(चाचा ने आधा घंटा बंसी की आत्मा को कोस-कोस के उसकी जम के पिटाई की और मझले को अद-मरा कर दिया. थोड़ी देर में बंसी का भूत प्रकट हुआ......)

चाचा क्यों मुझे बदनाम कर के इस बिचारे मझले को पीट ते हो? इस को किसी अस्पताल में दिखाओ और इलाज कराओ. हम भूत तो खुद तुम इंसानों से डर के रहते हैं के कहीं हमारी इज्ज़त को खतरा न हो जाए या कहीं किसी रोज़ हमे किसी घोटाले में न फंसा दो तुम लोग. आत्मा बन्ने के बाद सब के दिल की कालिख दिखती है और असलियत पता चलती है कि कौन कैसा है. तुम लोग तो एक दूसरे को ही मारने पे तुले हो, भाई-भाई का दुश्मन है, बाप कि नज़र बेटी पे रहती है, पड़ोस का लड़का या लड़की किस से मिलता है घर कि खिड़की से येही झांकते हो.
अरे चाचा, तुम्हारे अन्दर ही प्रेत है तो हम चिपट कर क्या करेंगे? और ये अन्दर का प्रेत किसी झाड-फूँक या तंत्र विद्या से नहीं जाता. जाता है तो अच्छी विद्या ग्रहन करने से, इंसान की इंसान के प्रति इंसानियत जागने से, श्रधा से.
तो चाचा अब झाड-फूक बंद और लोगों को ज्ञान देना शुरू....नहीं तो मैं चिपट जाऊंगा और फिर तुम में से मुझे कौन निकालेगा ????

मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

दर्द महोदय

हमारे घर में कुछ दिनों पहले एक मेहमान आया था,
नाम पुछा तो खुद को "दर्द" बतलाया था।
रोज़ भोजन पानी मेरी खुशियों का करता था,
जब देखो उदासी की जीभ लप-लपाया करता था।

अतिथि देवो भावः में विश्वास करता हूँ,
इसलिए अपनी खुशियाँ भी उसके नाम करता था।
मेरी मसरूफि़त के चलते महोदय यहीं टिक गए,
ऊँगली पकड़ के मेरे गिरेबान से लटक गए।

एक रोज़ उसको शहर घुमाने ले गया,
उसके कुछ रिश्तेदारों से मिलवाने ले गया।
"दर्द" की शहर में रिश्तेदारी बड़ी थी,
उसके मामा, फूफा, चाचा, ताऊ सब से मिला,
कोई बंगले में, कोई झुग्गी में,
कोई बिखारी के कटोरे में बस रहा था.
तब उन सब से मिलकर तसल्ली हुई कि,
मेरे घर तो उनका अनुज पसर रहा था.

"दर्द" महोदय से हमने रास्ते में ही विदा ली,
और ख़ुशी ख़ुशी हमने घर में आके चैन की सांस ली.
तबसे कान पकडे, कसम खायी अब निमंत्रण देने से पहले,
ठंडे दिमाग का उपयोग करेंगे,
खुशियाँ यूँ न अपनी अब हम बरबाद करेंगे.

--नीरज

रविवार, दिसंबर 27, 2009

काश के चाँद मेरी शर्ट का बटन होता



काश के चाँद मेरी शर्ट का बटन होता, मैं रो़ज़ उससे तोड़ता तू रोज़ उसे सीती,
यूँही सिलसिला सालों चलता, ये अमावस यूँही इतनी लम्बी न हुई होती....

मखमली पंखुडी गुलाब की गर पलकों पे न सजी होती तेरे,
नज़रें हमसे भी किसी रोज़ टकराई होतीं यूँ काटों में न फंसी होती.

झुरमुट में कहीं एक पत्ते पे पड़ी ओस की बूँद से लब तेरे थर-थराते हैं,
मुस्कुराती तू अगर तो ओस की बूँद मेरे लबों को छूके गुज़री होती.

गुलशन में हजारों के बीच तू अध्खिले गुलाब सी मिली थी तब,
होती तू अगर, ज़िन्दगी मेरी मेह्कार-ए-गुलिस्तान बन महकी होती.

आंचल से तेरे ऊंघते, झांकते, जगमगाते सितारे सभी,
आते कभी ज़मी पर मेरी तो इस आशियाने में भी रौशनी होती.


--नीरज

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

माँ मुझे फिर एक बार अपने अंचल में सो जाने दे




कई रातें बीतीं हैं यूँही पलकें झपकते-झपकते,
माँ मुझे अपनी गोद में फिर जी भर के सो जाने दे.

नींद से अचानक यूँही जाग जाया करता हूँ अक्सर,
माँ मुझे रात भर तेरा हाथ पकड़ के सो जाने दे.

ये मखमली गद्दा अब मेरे बदन में गड़ने लगा है,
माँ मुझे अपने साथ चटाई पे सो जाने दे.

गिद्ध मंडराते हैं ख्वाबों में मेरे हर रात, हर पहर,
माँ मुझे फिर झूमर के नीचे सो जाने दे.

बाज़ार के कपड़ों में ठण्ड नहीं बचती है ज़रा भी,
माँ तेरे हाथ के एक स्वेटर में ठण्ड को खो जाने दे.

दूर आ गया था तुझसे भौतिक चाहतों में लिपट के,
माँ मुझे फिर एक बार अपने अंचल में सो जाने दे.
माँ मुझे फिर एक बार तेरी लोरिओं में खो जाने दे.
माँ मुझे फिर एक बार तेरी थाप्किओं में सो जाने दे.

-नीरज

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

क्या हुआ गर ला इलाज हूँ,



गुज़रा है ज़माना इस बंद कमरे में
टूटे हैं पंख मेरे फड-फाड़ा के बंद कमरे मे.
क्या हुआ गर ला इलाज हूँ,
स्वप्न नहीं रुके हैं मेरे इस बंद कमरे मे.

सींचता हूँ रूह अपनी अनगिनत उन यादों से
शब् टपकती है कमल पे डब-डबती उन यादों से.
क्या हुआ गर ला इलाज हूँ,
यादें छीन नहीं सकते तुम मेरी यादों से.

एक भूल तुम्हे दुनिया से काट सकती है दोस्त
सिर्फ सुरक्षा ही रक्षा कर सकती है दोस्त.
क्या हुआ गर ला इलाज हूँ,
मेरी थोड़ी सी जानकारी ज़िन्दगी बचा सकती है दोस्त.

सिर्फ आज एड्स दिवस पर ही नहीं बल्कि जब मौका मिले सन्देश फैलाएं....एड्स फैलने से बचाएँ.....

--नीरज

मंगलवार, नवंबर 17, 2009

तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....



इस रोज़ के शोर ने मेरी आवाज़ छीनली है शायद,
या टूट गयीं हैं वो कुछ बची हुई नाज़ुक तारें,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....

रिश्ते में हमारी, ठंडक और धुंध पड़ गयी है शायद,
या दूर से आती रौशनी हमे अँधेरे का तोफा दे गयी है,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....

अपने सपनों की पतंगें पेंच लड़ा रही है शायद,
या कुछ धागे सुलझने की कोशिश में मसरूफ हैं,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....

डूबती, उभरती और फिर बह जाती हूँ यादों में शायद,
या तुम्हारी यादें आँखों से मेरी रिस जाना चाहती हैं.
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....

--नीरज

रविवार, नवंबर 01, 2009

काश के चाँद मेरी शर्ट का बटन होता


काश के चाँद मेरी शर्ट का बटन होता,

मैं रो़ज़ उससे तोड़ता तू रोज़ उसे सीती.
यूँही सिलसिला सालों चलता,
ये अमावस यूँही इतनी लम्बी न हुई होती....

-- नीरज

बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

लाचारी


छोटी छोटी आँखों से उम्मीद
को रोज़ झांकते देखता हूँ,
आस के चमकीले कणों से
सने हाथ छिले देखता हूँ.
अंगार सी सड़क पे नंगे पैर
बचपन झुलसते देखता हूँ,
थर-थराती सर्दी में नंगे
जिस्मों को सिकुड़ते देखता हूँ.

नन्हे कंधे स्कूल के बस्ते से नहीं
मजदूरी के बोझ से झुके देखता हूँ.
पैसे की हवस में इंसान को
इंसान का दलाल देखता हूँ.
कर नहीं पता कुछ इनके लिए,
हाथ अपने लाचारी से बंधे देखता हूँ.

--नीरज

शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009

-- शुभ दीपावली --



रौशनी का पर्व है आया
इस वर्ष फिर से.
घर-घर, गली-कूचे
रंगों से चमके हैं
रौशनी से दमके हैं.

गली-कूचे कुछ ऐसे भी हैं
जो चमके हैं न दमके.
आओ रौशनी का एक दिया
उस अँधेरी चौखट पे रखदें.
कुछ अँधेरी ज़िन्दगियों को
इस पर्व पे रोशन करदें.

-- शुभ दीपावली --

--नीरज

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

एक ख्वाब...एक सवाल...एक दुआ...

ए महबूब मेरे तू मेरी यादों में है,
मेरे ज़हन में है, मेरे ख्यालों में है.
पहर दर पहर यूँही गुज़र जाते हैं,
तू ज़बान में है, मेरी आँखों में है.

परेशान सी है कुछ मैंने सुना है,
घर लाने का तुझे सपना बुना है.
डरता हूँ समाज से अपने मैं भी,
ज़िक्र पे तेरे मैंने फिकरा सुना है.

हर चेहरे में हर आँखों में ढूंढता हूँ,
फिज़ा में, हर आँचल में ढूंढता हूँ.
चेहरे पे मुखोटे, आँखों में जलन है,
मेरे ईमान हर डगर बस तुझे ढूंढता हूँ.

लुटती हैं अस्मतें सरे आम यहाँ पर,
मुर्दा है ज़मीर इंसान का जहां पर.
टीस दिल की यहाँ कोई समझता नहीं
महबूब मेरी इंसानियत तू है कहाँ पर?

--नीरज

सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

कश्मीर



चांदी सी रोशन वादी
सुर्ख लाल हो गयीं हैं,
सरहदें जोड़ती झेलम,
वादी में मौन हो गयी है

रहती थी जो अमन से यहाँ
जाने कहाँ वो शान्ति खो गयी है.
लगी है शायद नज़र कांगडी को
आंच से वो अब अंगार हो गयी है.

डल के शिकारों से बहती मोहब्बत
जिहाद का शिकार हो गयी है.
रोक दो जिहाद इंसानियत के खातिर
वादी ये अपनी रंग हीना हो गयी है.

कितना खुशगवार होगा नज़ारा जब-
डल में फिर शिकारे चलेंगे.
सड़कों पे लोग बे-खौफ चलेंगे.
Curfew बिना ईद पर गले मिलेंगे.
फिर गूंझेगी कल-कल झेलम की,
सफ़ेद चादर में लिपटी इस वादी में.

--नीरज

शनिवार, सितंबर 12, 2009

फकीर - एक गीत



ज़िन्दगी का मेला चलता,
सालों साल बराबर चलता.

खोज रहीं हैं मंजिल अपनी,
दर दर भटक रहीं साँसे.
बाँटता जा खुशियों को जग में,
निकल जायेंगी सब फांसें.

ज़िन्दगी का मेला चलता,
सालों साल बराबर चलता.

स्वर्ग नर्क किसने है देखा,
शब्-ओ-सहर है सब ने जाना.
मौत की चिंता छोड़ ओ प्राणी,
गाता जा खुशियों का गाना.

ज़िन्दगी का मेला चलता,
सालों साल बराबर चलता.

अन्तकाल तक यूँही फिरता,
कहता रहता चलता चलता.
हाथ लिए इकतारा फकीरा,
ज्ञान की माला जपता चलता...

ज़िन्दगी का मेला चलता,
सालों साल बराबर चलता.

--नीरज

शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

प्यार की गर्मी

रात सिकुडी है
साँसे ठहरी सी हैं
कोहरा घनेरा
सुन्न जिस्म है मेरा.

पोटली देखी है
फुटपाथ के किनारे,
गरीब का परिवार
प्यार की गर्मी
ले रहा है.
अमीर हैं की प्यार
की नरमी भूल गया.
गर्मी मिटाने के लिए
AC में सो रहा है

--नीरज

गुरुवार, सितंबर 10, 2009

** हाइकु **

महताब है
मोहब्बत मेरी.
दूर मुझसे.

***************

ज़मीन गीली,
अजीब सी खामोशी....
बिखरे मोती.

--नीरज

बुधवार, सितंबर 09, 2009

मैं हिन्दुस्तानी.

फिर दंगे हो रहे हैं,
हर जगह लड़ मर रहे हैं.
minority का majority से मुकाबला है
जिस के कम सिर काटेंगे कल उसकी सरकार बनेगी
हारने वाले की फिर 5 साल बाद इस सरकार को ज़रुरत पड़ेगी.

हर जगह दुकाने जल रहीं हैं,
लाशें नंगी तड़प रहीं हैं,
बच्चों, औरतों तक को नहीं छोडा,
हर तरफ जिंदगियां बिफर रही हैं.

हल चलता किसान आज Rs.500 के खातिर
तलवार भाँज रहा है,
घोर कलयुग आ गया है फसल की जगह सर काट रहा है,
कसूर उस बिचारे का भी नहीं है,
सियासत प्यास है ऐसी जिसकी तृप्ति लहू के बसकी भी बात नहीं है.

न जाने कब ये मुल्क जागेगा
कब "इकबाल" की बात को जानेगा
कब अपने आपको कश्मीरी, मद्रासी,
मराठी के ऊपर 'हिन्दुस्तानी' मानेगा

जिससे पूछो वो येही बतलाता है
मैं मराठी, मैं गुजरती, मैं राजस्थानी
कितने हैं आप में जो कहते हैं
"मैं हिन्दुस्तानी".

जब बनाने वाले ने
तुझे बनाने में भेद भाव नहीं किया.
तो हे प्राणी तूने उस के नाम मात्र पे
भेद भाव क्यों किया?

तेरे इष्ट ने कहाँ पढाया
तुझे ये पाठ ज़रा बता,
खून की होली खेल,
घर रोशन करना कहाँ से सीखा मुझे बता?

--नीरज

** हाइकु **

रात सिकुडी,
साँसें ठहरी सी हैं.
गरीब सच...

--नीरज

मंगलवार, सितंबर 08, 2009

कन्या भ्रूण हत्या



माँ आज मैं 4 महीने की हो गयी,
बस 5 महीने और फिर मैं तेरी हो जाउंगी।

भैया के काँधे पे खेलूंगी,  पापा की ऊँगली पकडूंगी,
जब तू दफ्तर जायेगी, घर साफ़ मैं कर  लूँगी।
भैया की चिंता न  करना उसका खिलौना भी मैं बन लूँगी,
बस कुछ दिन और फिर मैं तेरी हो जाउंगी।
मन लगा कर पढूंगी, तेरा नाम रोशन करुँगी,
ये  पापा क्या बोले माँ? मैं कल तुझ से कट जाउंगी?
पापा का क्या है माँ, दर्द तो तुझ को, मुझ को सहना है,
मेरा क्या होगा माँ मैं तेरी कैसे हो पाउंगी?

हटवाना था जब मुझको तो देवी से क्यों माँगा था?
रो रो रात गुज़रीं तूने तब देवी ने मुझ को भेजा था।
हट कर ले माँ वरना मैं कल तुझ से कट जाउंगी।
अडिग हो जा माँ वरना मैं तेरी कैसे हो पाउंगी?

--नीरज

रविवार, सितंबर 06, 2009

मुझे जीने दो....



आज में 25 साल का हूँ,
अपनी खुशिओं से बे-परवाह हूँ.

पिछली साल तक सब अच्छा था,
मैं अपने दोस्तों के दिल का हिस्सा था.
अब वो ही दोस्त जो घर पर आया करते थे,
बीते साल से उनके रस्ते भी बदल गए थे.

जब गली से गुज़रता था तो कोई
तिरछी निगाह कर देखता न था.
अब तो बस निगाहों से ही बात होती है,
सब को डर लगता है कहीं मुँह न खुल जाए.

अब तो उस दोस्त ने भी नाता तोड़ दिया जिसको
खून देने अस्पताल गया था और ऐवज़ में HIV साथ ले आया था,
तब नहीं पता था की खून के साथ कई रिश्ते,
कई दोस्त उस बिस्तर पे छोड़ आया था.
रात भर करवट बदल-बदल कर रोती है,
माँ है....झूठी हंसी तक समझती है.
रोज़ कोई न कोई मेरे हाल पे अफ़सोस जताने चला आता है.
30 मिनट में मेरी माँ को मौत की परछाई दिखा चला जाता है.

न जाने कब तक इन आंसूओं को छिपाकर पिऊंगा,
न जाने कब तक इस अँधेरी धूप में जिऊंगा,
जाना नहीं चाहता कहीं पर क्या करूँ,
जब मुझे ही सब छोड़ चले तब मैं यहाँ रहकर क्या करूँगा.

अपनी आशाओं, उमंगों को अपने साथ ले जाऊँगा,
इस संसार को बस अपनी याद दे जाऊँगा,
कुछ रोकर याद करेंगे कुछ हंसके,
लुप्त होती इंसानियत का बीज बो जाऊँगा.

एक गुजारिश है तुम पढ़े लिखों से,
किसी AIDS patient को अछूत न समझना,
वो अभी तक जिंदा है
उसकी भावनाओं को मुर्दा न समझना......


--नीरज

शनिवार, सितंबर 05, 2009

दो बहनें

काश के एक रोज़ यूँ
ही तू मुझे मिली होती,
रख लेता तुझे संभाल के
सहेज के, मेह्फूस कर के.

तू न आई अपनी सौतेली
बहन को भेज दिया.
वो जब-जब आई मैंने
दरवाज़ा नहीं खोला,
सदा तेरा ही इंतज़ार किया.
और एक रोज़ खुद ही
उसको बुला लिया.

मुझे क्या पता था की
उसके आने पर ही तू आएगी,
तेरी पायजेब की आवाज़
कानों में जब गूंझी तब तक
देर हो चुकी थी.
तेरी सौतेली बहन
मुझ पे हावी हो चुकी थी.

हर रिस्ता कतरा कलाई से
खून का किस्मत को रो रहा था.
तू चौखट के उस पार थी,
मैं चौखट के इस पार सो रहा था....

सोचा था तेरी सौतेली बहन "मौत"
के साथ तू भी मिल जायेगी,
पर ए "ख़ुशी" तू उस दिन भी
चौखट के पार ही रह गयी,
और मैं चौखट के इस पार ही सो गया....


--नीरज

मंगलवार, अगस्त 25, 2009

सुगंधा

छोटा परिवार सुखी परिवार....कुछ ऐसा ही था आशीष और नेहा का परिवार - वो दो और उनकी एक फूल सी बच्ची सुगंधा. पर कहते हैं की सुख और शान्ति किसी के भी पास ज्यादा समय तक नहीं टिकती है, कभी न कभी दुःख की लहर आती है और सब कुछ बह जाता है. आशीष के परिवार में भी एक रोज़ दुःख की लहर ने दस्तक दे ही दी और उस दिन से उसका सुखी परिवार तिनके की तरह बिखर गया.
सुगंधा 11 वीं कक्षा में थी जब एक रोज़ घर लौटते हुए आशीष की motercycle को एक ट्रक ने टक्कर मार दी. आशीष को बहुत ही गंभीर चोटों के साथ सरकारी अस्पताल के आपातकाल में भर्ती कराया गया.
2 साल हो गए हैं आशीष को उस्सी हालत में घर पर पड़े हुए. न ज़िन्दगी आती है न मौत आती है. न जाने साँसों के कौन से धागे ने उसके शरीर को अब तक थाम रखा है?
जो कुछ भी पैसा आशीष ने अब तक जमा किया था वो उसके इलाज में लग चुका था. नेहा बस 5 वीं कक्षा तक पढ़ी हुई थी तो उसको भी कहीं नौकरी नहीं मिलती थी, मजबूरी में होने के कारण वो घर से थोडी ही दूर कुछ कोठियों में घर का काम करने लगी थी जिससे की घर का खर्च निकल जाता था. प्रेम विवाह होने के कारण घर वाले तो बहुत पहले ही सारे रिश्ते तोड़ चुके थे इनसे तो उनके यहाँ भी नहीं जा सकते थे मदद मांगने.
सुगंधा पैसों के अभाव के चलते पढाई नहीं कर पा रही थी पर उसको पढने की बहुत इच्छा थी. माँ को रोज़ दूसरों के घर में काम करते उसको अच्छा नहीं लगता था और घर में पिता की जिंदा लाश देख देख कर रोना आता था. पर कोई क्या कर सकता है - जब-जब जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होता है.
एक दिन सुगंधा को कहीं से पता चला कि किसी Domestic BPO में जगह खाली है. ज़िन्दगी के इतने थपेडे खा खा कर सुगंधा में आत्मविश्वास बहुत आ गया था तो उसको नौकरी मिलने में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. तनख्वा बहुत ज्यादा तो नहीं थी पर हाँ वो अपना खर्चा निकालने लग गयी थी और जो उसका पढाई करने का सपना था वो भी उसने मुक्त विश्वविद्यालय से पूरा करना शुरू कर दिया और घर चलाने में माँ की मदद भी करने लगी. कुछ रोज़ के बाद जो कुछ साँसें आशीष को बांधे हुई थीं वो भी छूट गयीं.
सुगंधा ने बहुत मेहनत की और कुछ ही समय में उसकी लगन और इमानदारी के चलते उसको Team Leader बना दिया गया. अब नेहा ने भी घरों में जा कर काम करना बंद कर दिया है, उसने अपने ही घर में सिलाई कि कुछ मशीनें रख लीं हैं और अपना खुद का काम करती है और साथ ही में उसकी तरह बेसहारा औरतों को काम सिखाती है और उनको उनके पैरों पर खड़े होने में मदद करती है.

किसी ने सही कहा है - पतझड़ के बाद आते हैं दिन बहार के, जीना क्या जीवन से हार के....

--नीरज

रविवार, अगस्त 23, 2009

ज़िन्दगी

क्यों होता है ज़िन्दगी में अक्सर
किनारे जो पास नज़र आते हैं
वो ही अक्सर दूर चले जाते हैं.
किनारे पे रह जाते हैं कुछ घिसे
बेजान पड़े चिकने पत्थर.

रात को आसमान में देखो तो
बस एक गहरी तन्हाई नज़र आती है.
तन्हाई में चाँद छूने को हाथ बढ़ता है
मगर हाथ बस मायूसी ही आती है.

बेरुखी खुद से ही ना जाने कैसे हो गयी
हम हम न रह सके हम मैं में खो गए.
आईने ने पुछा दिल का रास्ता हमसे
ग़म नशीं हुए इतना कि रास्ता भूल गए.

पथराई नज़रों से देखता रहा दीवार को,
आँखें तकती रहीं नीर बहता रहा.
हम कोसते रहे किस्मत को यहाँ,
रात कटती रही सांस जाती रही.

--नीरज

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

Mou



छोटी सी एक प्यारी सी,
नन्ही सी राज दुलारी सी.

एक गुडिया घर में आई थी,
mou नाम से उसे बुलाई थी.

थोडी चुप-चुप, कुछ शरमाई सी,
भोली भाली, कुछ घबरायी सी.
मिठास शहद सी लायी थी,
mou नाम से उसे बुलाई थी.

अजय हुई तू एक पवन है,
निडर खड़ी तू एक गगन है,
ज़िंदगी में मौसुमी लायी है,
mou नाम से उसे बुलाई है.

--नीरज

बुधवार, अगस्त 19, 2009

आखरी जाम हो तो कुछ ऐसा हो....




हर एक सांस हर पल कम हो रही है,
ज़िन्दगी मैकदे में जाम बन रही है.

न कोई गम हो, न गिला, न शिकवा कोई
दोस्त हों आघोष में मेरे, न हो दुश्मन कोई
शिकन न हो चेहरे पे मेरे, न हो खौफ कोई
न शिकायत हो किसी से, न उधारी कोई
तमन्नाएँ अधूरी न रह जाएँ कोई
सिसकियाँ न हों मेरे जाने पे कोई
मोहब्बत के तमगे लगे हों कफ़न पे मेरे,
ज़िन्दगी का आखरी जाम हो तो कुछ ऐसा हो....

--नीरज

शनिवार, अगस्त 15, 2009

आज़ाद देश है मेरा यारों

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस पर बहुत बहुत बधाई.




यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

बीते हैं दिन वो नारों के,
लहू में बहते अंगारों के,
सूखे हैं मेहनत के रेले,
यहाँ रात चली है चमक-चमक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

सूख हरी-हर ईंट उगी है,
धुँए की चादर बहुत बड़ी है,
महंगाई के हैं छाले,
यहाँ चाँद छुपा है दुबक-दुबक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

आकाश को छूकर आये हैं हम,
परमाणु शक्ति कहलाये हैं हम,
खुशियों के मौके हैं सारे,
यहाँ ढोल बजाओ धमक-धमक

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

चश्मदीद है सूली चढ़ता,
जेल के बहार खूनी रहता,
आज़ाद देश है मेरा यारों,
यहाँ नाचो गाओ ठुमक-ठुमक.

यहाँ आग लगी है भबक-भबक
यहाँ जाम चले हैं छलक-छलक.

--नीरज

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

हबीब

आशकार करो चाहे जितना,
अफ़कार मिटा दो चाहे जितना.
मुंतज़िर बैठे हैं राहों में तेरी,
अलहदा करदो चाहे जितना।

रम्ज़-शिनास थे तुम हमारे,
ग़म-गुसार थे तुम हमारे.
क्या हुआ जो चल दिए यूँ,
रकीब तो न थे तुम हमारे?

गुल तो यूँ रोज़ मिलते हैं,
ख़ार बस किस्मत से मिलते हैं.
दामन थाम ले जो तेरा कभी,
ऐसे गुल बता कहाँ मिलते हैं?

पिलाने वाले तो बहुत आयेंगे,
नज़रों के साकी फिर आयेंगे.
रह जाओगे तकते हमे तुम,
जानिब हम तुम्हारे फिर न आयेंगे.

--नीरज

अफ़कार = Thoughts
आशकार = Zaahir
मुंतज़िर = intzar karne wala
अलहदा = Alag
रम्ज़-शिनास = One who understands hint, intimate friend
ग़म-गुसार = Comforter
रकीब = Rival
गुल = phool
ख़ार = kaanta, thorn

रविवार, जुलाई 26, 2009

कारगिल शहीदों के लिए

रण में शहीद, वहां से सकुशल वापिस लौटे तथा आज भी हमारी रक्षा करते सभी सैनिकों को समर्पित -



मर मिटे हजारों लाल यहाँ पर
श्वेत बरफ तब लाल हुई.
वादी वादी गूंझी घन घन
शत्रु पे बौछार हुई.

चढ़े चोटी पर वीर हमारे
विजय तिरंगा फेहराया.
लहू के हर कतरे से अपने
दिया जय हिंद का हुंकारा.

जय हिंद

--नीरज

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

निस्वार्थ

पेड़, नदी, पहाड़, झरने
बस यूँही विद्यमान हैं.
निस्वार्थ ही सब को
हर समय सुख देते हैं.
फ़र्ज़ अपने होने का बस
यूँही निभाते जाते हैं.

काश के इनको पूजने वाला
इंसान भी कभी इनको
समझ पाता और
एक दूसरे का मुश्किलों
में हाथ थाम पाता.

-- नीरज

बुधवार, जुलाई 15, 2009

मेरा देश - आज की नज़र से

हर प्रांत में मेरे देश की
ज़मीं गीली गीली सी लगती है.
मट मैली से कुछ सुर्ख रंग
लिए सी लगती है.

सोने की चिडिया न जाने
कहाँ लुप्त हो गयी है.
आपसी मतभेद से शायद
मुक्त हो गयी है.

सतरंगा इन्द्र धनुष अब
लाल दिखाई देता है.
बादल की हुंकार से ज्यादा
इंसानी शोर सुनाई देता है.

दो चूल्हों की आंच अब
हर घर से आती है.
रिश्तों की लकडी पे अब
रोटी सिक कर आती है.

भूख, प्यास सब त्याग के
मानस धरती पर लड़ता है.
इसकी ही कोख में एक दिन
सोने से डरता फिरता है.

--नीरज

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

गरीब

यूँ तिरछी नज़रें क्यूँ कर देखते हो,
सरकार की नज़रों का नूर हूँ मैं.

कहने को आशियाना बनाते है घोसला तोड़ कर,
घोटाले में फंस, फिर घोंसले में बस जाता हूँ मैं.

चुनावों में सियासी नज़रों का नूर हूँ,
बाद में मनहूस नासूर बन जाता हूँ मैं.

इलाज, कहने को मुफ्त देता है हॉस्पिटल,
दवाईओं के दाम पे पस्त हो जाता हूँ मैं.

खाने को राशन भी सस्ता मिलता है हर महीने,
राशन के इन्तेज़ार में ध्वस्त हो जाता हूँ मैं.

पीड़ ये दिल की कई बहरों को सुना चुका,
सुनने वालों की आस में आज भी गाता हूँ मैं।

--नीरज

बुधवार, जून 17, 2009

भूख और भिखारिन




भिखारिन -

मैं न रोई, न चीखी-चिल्लाई,
हर रात मैंने कुछ यूँ ही बिताई.
गुमसुम सी, निढाल पड़ी रही,
सितारों के संग मैंने रात जिमाई.

सुबहो का कोलाहल बुदबुदाता रहा,
कानों में पड़कर मेरे छटपटाता रहा.
कुछ लोग घेरे खड़े थे मुझको,
मौत मेरे कटोरे में देख ज़माना मुस्कुराता रहा.

भूख -

मैं भूख तेरी भी हूँ उसकी भी
फर्क बस इतना है - मुझे
मिटाने का तेरा जुनून बस
पल भर का होता है.
और उसका जुनून रात के
साए में भी कायम रहता है.
हर सांस पर मेरा साया,
गहरा होता जाता है.
उसका जुनून फिर भी कम नहीं होता,
हर क्षण पेट भीतर धसता जाता है.

--नीरज

गुरुवार, जून 11, 2009

मुशायरा

स्याह रात में चिराग जलाए बैठे हैं,
इंतज़ार में उनके दिल बहलाए बैठे हैं.

आँखों के मैय्कदे अब बंद नहीं होते,
यादों के पैमाने गालों पे संजोए बैठे हैं.

हर एक सितारे में तुझे ढूँढा है मैंने,
जो मिली तो पलकों में छुपाए बैठे हैं.

तेरी एक गुलाब सी ख़ुशी की खातिर,
अब तक काँटा दिल में चुभाए बैठे हैं.

मेरे मैय्कदे के चिराग मद्धम हो चले,
बस उनकी दीद की बातें बनाए बैठे हैं.

तेरी यादों के साए में सर रखके लेटा हूँ,
लोग शमशान में *मुशायरा सजाए बैठे हैं.

गर वो कभी पूछें की क्या हुआ, तो कहना,
"नीर" ठहर गया, लोग भाप उड़ाए बैठे हैं.

शमशान में मुशायरा - अंतिम संस्कार और मुशायरे में कोई ख़ास फर्क नहीं होता, दोनों में लोग आते हैं, मंच पर उपस्थित कवी की कविता के पूर्ण होने पर उसकी बातें करते हैं, तालियाँ बजाते हैं, घर जाते हैं और भूल जाते हैं.

--नीरज

बुधवार, जून 10, 2009

समय

याद करोगे जब मैं गुज़र जाऊंगा,
न आऊंगा न मैं फिर मिलूँगा.
ढूंढोगे सब गली-गली तब मुझको,
मैं चाँद अमावास का हो जाऊंगा.

बह जाऊँगा हाथ से तुम्हारे मूक होकर,
महसूस होऊंगा मैं तुमको बस ताप बनकर.
हाथ तुम्हारे, नाम मेरा होगा करनी पर,
कोसोगे मुझको तुम मेरे स्वामी बनकर.

मत मेरा तुम यूँ उपहास करो,
तुम उठो मेरा शीघ्र एहसास करो.
मुझे यूँ व्यर्थ गँवा कर हर पल,
अपने काल का न यूँ आह्वान करो.

तुम्हारी साँसें भी मेरे दम पे चलती हैं,
किस्मत भी मेरे आगे झुकती है.
शक्ति भी मैं हूँ जीवन की,
देह भी मेरे राह पे चलती है.

मैं समय हूँ, मैं काल हूँ, मैं बलवान हूँ,
ये घमंड नहीं मेरा ये चेतावनी है तुमको,
मत व्यर्थ करो, उपयोग करो,
ये अंतिम चेतावनी है मेरी तुमको.

--नीरज

सोमवार, जून 08, 2009

ऐसी ही आवाज़ मुझे सुनाई देती है

इंसान आज इंसान से भागे फिरते हैं,
भगवान तेरे बन्दे तुझसे भागे फिरते हैं.

माथे पे टीका, हाथों में माला,
दिल काजल से साने फिरते हैं.

मुँह में राम बगल में गुप्ती,
मुक्ति की माला फेरते फिरते हैं.

सुबह तेरा नाम जपते उठते हैं,
दिन भर गालिओं की प्रत्यंचा खींचते फिरते हैं.

तेरे दर पे आती आवाजों में आजकल,
भक्ति से ज्यादा इच्छा की गूंझ सुनाई देती है.
ऐसे आस्तिकों से में नास्तिक भला हूँ.
माफ़ करना ख़ुदा, ऐसी ही आवाज़ मुझे सुनाई देती है.

-- नीरज

रविवार, जून 07, 2009

ए लाल मेरे

Ek gaaon mein rehne wali maa ki bhaavnaaon ka chitran karne ki koshish ki hai jab wo gareebi aur gaaon mein sookhe aur aakal ki stithi mein apne bacche ko doodh nahin pilaa paati aur shishu ko apni god mein le kar bheegi hui aankhon se bas nihaar rahi hai aur usko apne dil ki vyatha samjhaane ki koshish kar rahi hai.



क्या पिलाऊं मैं तुझे ए लाल मेरे,
दूध मेरा तू पी चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

भूख तेरी कैसे मिटाऊं ए लाल मेरे,
अन्न ख़त्म हो चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

आसमान फटता नहीं ए लाल मेरे,
नीर सारा सूख चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

अश्रु पीले तू मेरे ए लाल मेरे,
ये भी काफी बह चुका है,
और दूध में क्या कर बनाऊं?

यूँ न मुझ को छोड़ अधूरा ए लाल मेरे,
5 की आहुति से देह मेरा जल चुका है,
और एक कफ़न मैं क्या कर सिलाऊं?
और दूध में क्या कर बनाऊं लाल मेरे?

--नीरज

गाँव और मैं

आसमान मेरा कुछ मटमैला सा हो गया है,
चाँद तारे कृत्रिम जगमगाहट की सिलवटों में खो गए।
पेड़ की छाँव, वो कुएं का पानी,
AC और refrigerator की चाह में बह गए।

सोंधी बारिश की वो खुशबू अब कहीं आती नहीं,
concrete की मंजिलों में लुप्त हो कर रह गया हूँ।
गाय का वो दूध ताजा अब कहीं मिलता नहीं,
थैली के दूषित दूध पर आश्रित हो कर रह गया हूँ।

खेत की ताज़ी सब्जी का स्वाद भी अब जाता रहा,
बासी सब्जी में ही अब मज़ा मुझ को आता रहा।
चूल्हे की रोटी का स्वाद, दाल में मिट्टी की खुशबू,
खो गया है सब जहान से, याद कर दिल भिगोता रहा।

--नीरज

गुरुवार, जून 04, 2009

मेरा खुदा

ज़िन्दगी के मेले में हम भी मोहबत सजाए बैठे हैं,
दीद में उनकी हम भी आस लगाए बैठे हैं.

ख्वाब की चादर पे कभी आना ए हमनफ़स,
मेरे चाँद में भी ठंडक है और दाग लगाए बैठे हैं.

तिजारत की इस दुनिया में मोल की कमी नहीं,
हम हर सांस तेरे आने की आस से सजाए बैठे हैं.

तेरी इस बस्ती में अब खुदाई कहाँ है,
हम तो तेरे नाम को सीने में छुपाए बैठे हैं.

इबादत में ये हाथ बस तेरे ही उठते हैं,
तेरे आने की राह में पलकें बिछाए बैठे हैं.

अहम् में बहने वाले यूँही बह जाया करते हैं "नीर",
हम तो इंसानियत को अपना खुदा बनाए बैठे हैं.

--नीर

शुक्रवार, मई 29, 2009

मैं

न रात हूँ, न दिन हूँ,
न हूँ मैं भगवान कोई.
आकाश नहीं, पर्वत नहीं,
ना ही हूँ झरना कोई.

खामोशी की दस्तक नहीं,
न अँधेरे का फलसफा कोई,
न झील में तैरती पतवार हूँ,
न अम्बर का फ़रिश्ता कोई.

हाड मॉस का देह मेरा,
छोटा सा है ह्रदय मेरा.
रात मेरी भी हैं काली,
दिन होता रोशन मेरा.

अश्रु की पैदा वार भी है,
ग़मों की खरपतवार भी है.
अंधेरों से मैं भी हूँ डरता,
चांदनी की खिलखिलाहट भी है.

पूछते हो क्यों ये मुझसे,
कौन हूँ मैं कौन हूँ मैं?
तुम बताओ अब ये मुझको,
क्या तुमसे भी कुछ भिन्न हूँ मैं?

-- नीरज

शुक्रवार, मई 22, 2009

काश होती लक्ष्मणरेखा

भरपाया हूँ खींच तान से
अब नहीं झिलते तुम मुझको
लाज करो कुछ लाज करो
राष्ट्रीय संपत्ति न तुम
यूँ बरबाद करो.

काश के होती लक्ष्मणरेखा,
या आती कोई Hit, mortein ऐसी
हर सड़क, गली,
कूचे पे लगवाता
ये मुल्क रोज़ 10 से न सही
1 से तो निजात पा ही जाता.

रोज़ कुछ नया इजाद
करना फिर भी पड़ता
क्योंकि लोग कहते हैं
कॉक्रोच और मच्छर
जल्दी अभ्यस्त हो जाते हैं.

--नीरज

गुरुवार, मई 21, 2009

...नहीं पहचान पाता

दिन के उजाले की ललक
का दीवाना इंसान
स्याह रात के जुगनू
नहीं पहचान पाता.
खो देता है उस क्षण को
और चार दीवारी में दिन
नहीं पहचान पाता.

सीप में छुपे मोती खोजता है
आँखों के सागर में छुपे
मोती नहीं पहचान पाता.
खोखली हंसी पे जीता है
अपने ही सीने में उमड़ता
दर्द नहीं पहचान पाता.

आकाश से टूटते सितारे देखता है
दिल से जुदा होते रिश्ते
नहीं पहचान पाता.
यही जीव उस शक्ति ने उपजा था
जो अब अपने आप को
नहीं पहचान पाता.

--नीरज

बुधवार, मई 20, 2009

सिन्दूर


लाल साड़ी के पल्लू पे काश दाग चड़ा होता,
हल्दी, सिन्दूर न सही कीचड से ही जड़ा होता.

जोड़े में सहेज, रख लेती उस दाग को,
काश अम्मा-बाउजी ने वो दाग माथे मड़ा होता.

नीली छत्री के तले रोज़ दिल भिगाती हूँ,
दाग होता तो दिल पे सिन्दूर चड़ा होता.

कर्त्तव्य की आड़ में क्यों धोखा दिया,
देते न तो आज जीवन बिन बैसाखी खड़ा होता.

तुम्हारी ये मासूम कली फूल भी बनती,
गर सिन्दूर नशे में मसलने पे न अड़ा होता.

दिल को हर गली-कूचे ढूंढती फिरती हूँ,
काश के दिल इसी शहर में कहीं पड़ा होता.

--नीरज

मंगलवार, मई 19, 2009

अनमने भाव

अनमने भाव इस दिल में आज कल आने लगे हैं,
दिल को हर घडी झिंझोर ने, डराने लगे हैं.

बस दिए में दिल लगता है, न जाने क्या है मेल मेरा,
ज़िन्दगी धुआं हो रही है, वक़्त दिखता तेल मेरा.

सैमल सा हल्का फुल्का कभी इधर कभी उधर,
विचरण करता ह्रदय मेरा कभी इधर कभी उधर.

कंकर दिखता पहाड़ मुझे, कण टीला सा दिखता है,
दूजा खुश ज्यादा मुझसे, हास्य करीला सा दिखता है.

अश्रु साथ नहीं देते अब दिल तनहा ही रोता है,
साया रूठ गया है अब मन तनहा ही सोता है.

--नीरज

*करीला - जिस पर की गाँव में मटके को फोड़ कर, नीचे के गोलाई वाले भाग को चूल्हे पे औंधा रख कर रोटियां सेकी जाती हैं. सीधी आंच लगने के कारण वो समय के साथ काला भी हो जाता है.

लोग पूछते हैं...

लिखता हूँ तेरा नाम फिर मिटा देता हूँ,
लोग पूछते हैं तू कुछ लिखता क्यूँ नहीं?

मोहब्बत से बढ़कर क्या है ज़िन्दगी में,
लोग पूछते हैं तू कुछ करता क्यूँ नहीं?

तेरे ख़त के पुर्जे हैं दिल में दफन,
लोग पूछते हैं तू कुछ पढता क्यूँ नहीं?

तूने अंदाज़-ए-गुफ्तगू निगाहों से सिखाया,
लोग पूछते हैं नज़रें उठता क्यूँ नहीं?

आशिक फ़कीर से क्यों होते हैं अक्सर,
लोग पूछते हैं तू मांगता क्यूँ नहीं?

मैं को "मै" में डूबा गयी थी,
लोग पूछते हैं पैमाना थमता क्यूँ नहीं?

--नीरज

सोमवार, मई 04, 2009

इम्तहान

जाने क्यों इम्तहान होता है,
साल भर मस्ती और अंत में
ये जन-जाल होता है.

दिन रात बस सिलवटों का डेरा,
आँखों के नीचे अँधेरा होता है.
दुनिया घूमने जाती है, ख़ुशी मनाती है
और ये दिल, मायूस किताबों में होता है.

एक सवाल बचपन से जारी है,
इम्तहान से पहले क्यों पेट को होती बीमारी है.
घर वाले सब हंसते हैं,
क्यों चुना इस विषय विशेष को
हम ये सोच सोच कर रोते हैं.

कल इम्तहान है और आज Tension से,
keyboard से कवितायेँ झड़ रहीं हैं.
न जाने कल इम्तहान में क्या झडेंगे,
पता चला वहां भी कवितायें झड़ रहीं हैं.

किताबों ने भी जवाब दे दिया है,
कहतीं हैं बेटा तुझे दवा की नहीं
है ज़रुरत अब तो दुआ ही तेरी,
आखरी उम्मीद रह गयी है.....

--नीरज

मौत

मौत तू आएगी,
न जाने किस लिबास में.
दामन में गिरेगी या,
उडा ले चलेगी.

सालों करवटें दिलवाएगी,
या आघोष में भर ले चलेगी.
दबे पाँव आएगी या,
रोज़ एहसास के साथ आएगी.

जानता हूँ मौत तू एक रोज़ आएगी,
झोंके के साथ मेरी रूह ले जायेगी.

--नीरज

Yaad hai mujh ko

Chandni ne us din jab chupke se tujhe chua tha,
tu kaise sharma ke simat gayi thee yaad hai mujh ko.

office mein jab kaam nahin tha bahar khali baithe the,
oss ki boondon ko mujh pe chitakna yaad hai mujh ko.

tere gesuon ki wo narm narm thandak bhari chaaon,
mere udas chehre pe fira dena yaad hai mujh ko.

meri khushi mein uchalna, mujhe yun aaghosh mein bharna,
ashkon se meri shirt bhigona yaad hai mujh ko.

Shopping ke liye subhe se Sarojini Nagar mein ghoomna,
Choti Diwali ka wo din ab bhi yaad hai mujh ko.

chaat ke liye wo zid tumhari, pal bhar ko mera rooth jaana,
dhamaake ka wo shor ab bhi yaad hai mujh ko.

--Neeraj

Section 49-O

साँसों में तूफ़ान लिए,
हाथों में पतवार लिए।
चलता है राह मुसाफिर,
आँखों में सैलाब लिए।

युग बीते सब वादे टूटे,
नैनों से बस हंजू टूटे।
ऊँगली पे निशान लगा,
आशा का अब साथ न टूटे।

संविधान को छुपाये रखा,
49-O बचा के रखा।
जनता अब है जाग रही,
अपना हक पहचान रही।

http://en.wikipedia.org/wiki/49-O
हंजू - आंसू

--नीरज

प्रतिबिम्ब

हरिद्वार गया था कुछ रोज़ पहले,
लोगों को पावन डुबकी लेते देखा,
बस एक ही ख्याल आया दिल में,
मनुष्य कितना विचित्र है,
मरने से डरता है पर फिर भी,
खुद की अस्थियाँ बहने से पहले,
गंगा में प्रतिबिम्ब ज़रूर देखता है।

--नीरज

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

फौजी

दो देश लड़ रहे हैं,
सफ़ेद पोश सियासत खेल रहे हैं.
हम सरहद पे भूखे प्यासे,
द्रौपदी की साडी बुन रहे हैं.

दन-दन, घन-घन की आवाज़ बड़ी है,
दोनों तरफ लाशों की आबादी बड़ी है.
दिवाली इस बार लगता है थोडी लम्बी हो गयी,
*होली के इंतज़ार में सरहद पे ये टुकडी खडी है.

हर जोर लगा देंगे तुझे माँ हम बचा लेंगे,
आन बचाने को तेरी हम जां लुटा देंगे.
देश भक्ति का बीज लगा कर लहू से सींचेंगे,
लहू से सींचेंगे उसे माँ फ़सल बना देंगे.

विजय को स्वप्निल अबकी हम न होने देंगे,
जा चोटी पे ध्वज अपना ये फेहरा देंगे.
नहीं उठेंगी फिर नज़रें तुझ पर अब वो,
अबकी हम उनको ऐसा सबक सिखला देंगे.

बहुत सिखाया प्यार मगर क्या पाया हमने?
घुस आये भीतर घर में क्या पाया हमने?
दुसाहस मत करना हम प्रहरी जाग रहे,
दुसाहस पे तुमको हम ललकार रहे.

*(होली - लाल रंग यानी की शहीद भी होना पड़ा तो उसके लिए तैयार है फौजी)

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

सरफरोशी की तमन्ना



सरफरोशी की तमन्ना क्या अब हमारे दिल में है?
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-कातिल में है.

जलियांवाला खूँ तो बिस्मिल देख कब का धुल गया,
खूँ का रेला बहता अब तो मज़हबी इस दिल में है.

ट्रेन लूटने का ज़माना अब तो बिस्मिल लद गया,
अस्मतों की धज्जियाँ उडती यहाँ अब खुल के हैं.

इंसानियत पे लड़ने वाले अब तो बिस्मिल मर गए,
गोदरा-अयोध्या के मंज़र जलते यहाँ अब दिल में हैं.

गाँधी का तो कारवां कब का देखो लुट गया,
वोट का ही कारवां चलता सियासी दिल में है.

एक भारत का वो सपना भी तो देखो मिट गया,
आरक्षण की अब तो भट्टी जलती युवा के दिल में है.

सरफरोशी की तमन्ना अब तो बिस्मिल बुझ गयी,
बस अपने मतलब की मसरूफियत कलयुगी इस दिल में है.

-- नीरज

नोट:-ऊपर की दो पंक्तियाँ तो आप सभी लोग पहचानते ही होंगे, बिस्मिल साहब की हैं. बस मैंने बीच में "क्या" जोड़ दिया है.माफ़ी चाहूँगा अगर इस रचना से किसी के दिल को आघात हो तो.

आबरू

कुछ मनचली साँसों ने
कली की खुशबू छीनली।
हैवानियत ज़ोरों पे थी
रूह लुट गयी उस रोज़

जिस चाँद की कसमें खायीं
वो बस तकता रहा.
सितारे खिल खिलाते रहे
जहान लुटता रहा उस रोज़

चीखती, छट-पटाती जोर से
रहम मांगती रही.
चिन्दियाँ उड़ती रहीं
जिस्म खाख़ होता रहा उस रोज़


उठी...गिरी...कुछ घिसती
खड़ी हुई....फिर चली.
तन ढांप कर रूह खड़ी थी
शहर के चौराहे पे उस रोज़
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हजारों यूँही रोज़ लड़तीं हैं,
गिरतीं हैं और उठतीं हैं
अस्मत की खातिर.
कोई इन हैवानों को जा बता आये
बहने और माँ तुम्हारी भी हैं,
आबरू और रूह उनकी भी है,
सुना है...तुम्हारे मौहल्ले में चौराहे भी है....

-- नीरज

नीर हूँ मैं नीर हूँ

आज की मैं पीड हूँ,
रहता बिन नीड़ हूँ,
बहारों की जननी मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

सूखता नदी से आज
रोड पे पड़ा मैं आज
प्यासों की गुहार मैं
नीर
हूँ मैं नीर हूँ

आज में हूँ कल में भी
चक्षुओं के तल में भी
आत्मा की तृप्ति मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

रोकलो बचा लो तुम
व्यर्थ न बहाओ तुम
ज़िन्दगी की कुंजी मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

--नीर

शनिवार, अप्रैल 18, 2009

हिन्दी

अंग्रेजी देखि सूट-बूट में
हिन्दी भर्ती पानी
जो बोले अंग्रेजी में
वो ही होता ग्यानी।

A B C सब ने हैं जाने
बिरले ही जाने वर्ण माला।
सब जानें Tense & Pronoun
कितने जपते काल व सर्वनाम की माला?

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 16, 2009

किस्मत की लकीरें

आज 'प्रिया'* पर एक पंडित देखा,
एक आदमी का हाथ लिए बैठा था.
न जाने क्या ढूंढ रहा था उस में,
माथे की लकीरें सिकोड हुए बैठा था.

कुछ देर बाद उसके होंठ हिलने लगे,
उसकी सिकुडन कम होने लगीं.
जजमान सुनता रहा,
उसके माथे की सिकुडन बढ़ने लगीं.

तभी वहां से एक अफसर गुज़रा
सूट उसका काँधे से ढीला था।
सिहर गया जब पाया
वो व्यक्ति तो लूला था।

निगाह कभी अफसर पर,
कभी जजमान पर होती।
ज़हन में कोलाहल मचा था।
वाद-विवाद का मंच सजा था...

क्या वाकई इंसान की किस्मत,
हाथों की लकीरों में होती है?
क्या उनकी किस्मत नहीं होती,
जिनकी लकीरों में हाथ नहीं होते हैं?

-नीरज

*प्रिया एक सिनेमा हॉल है वसंत विहार, नई दिल्ली में.

बुधवार, अप्रैल 15, 2009

गठबंधन

ख्वाबों ही ख्वाबों में आज एक ख्वाब देखा,
हकीक़त सा लगा जब उसे छूके देखा.
*************************************************
दुल्हन बनी थी, सजी खड़ी थी
बहुत लोग इर्द गिर्द थे उसके.
हर्ष था उलास था सब के ललाट पे
पर शिकन न थी चेहरे पे उसके.

न मंडप था न पंडित
कुछ अटपटा सा नज़ारा था.
ढोल नगाडे सब ओर बज रहे थे
नाचता जहान हमारा था.

हकीकत देखि तो सिहर उठा
ख्वाब उसी पल खाख हुआ.
झूठे सच्चे वादों में
फिर नारी का नाश हुआ.

ये तो मात्र भूमि थी अपनी
इसका ये क्या हाल हुआ।
फिर पांचाली बन बैठी,
देश फिर गठबंधन का शिकार हुआ।

न जाने कौन कौरव कौन पांडव
अब तू न बचने पाएगी।
एक ओर दासी बन जायेगी,
तो दूजी ओर फिर जुए में हारी जायेगी.....

--नीरज

शुक्रवार, अप्रैल 10, 2009

बुढापा



आज मेरे मुन्ना का जन्मदिन है,
32 का हो 33 में लग गया मेरा मुन्ना.

आज भी वो दिन नहीं भूला जब अस्पताल से लाया था,
बीवी की आहुति देकर मुन्ना घर ले आया था.
माँ भी मैं था और बाप भी मैं,
माँ का आँचल कभी खलने नहीं दिया था.

घर में जो भी चीज़ आती थी,
वो उसकी पसंद की ही आती थी.
मुझे क्या पता था एक रोज़ ये आदत बन जायेगी,
मेरी बहु भी किसी दिन बस यूँही आ जायेगी.

कल तक हम लोग साथ रहते थे,
आज वो अपने बेडरूम में और
मैं अपने बेडरूम में रहता हूँ.
कल तक मुन्ना मेरे साथ रहता था,
आज मैं मुन्ने के साथ रहता हूँ.

कल तक मेरी खांसी खलती न थी,
आज वो उसको disturb करती है.
कल तक मैं खुलके जीता था,
आज उसी घर में डरा-डरा सा रहता हूँ.

न जाने आज की नस्ल को क्या हुआ है,
अपनी ही फसल खरपतवार नज़र आती है.
फसल काट घर ले जाते हैं,
खरपतवार खेत में डली नज़र आती है.

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

कन्या भ्रूण हत्या - 2



घनघोर अँधेरा था,
मौसम पर जेठ का डेरा था.
सड़कें सुनसान थीं,
पर कहीं चट-पट का डेरा था.

रात के 10 बज चले थे,
सारे कुत्ते सो चुके थे.
बस डॉ. साहब जागे हुए थे,
किसी काम में बीदे हुए थे.

एक पहर और बीत गया था,
आवाज़ का यका यक विस्तार हुआ.
Pulsar पर दो आकृतियाँ सवार हुईं,
उफ्फ्फ...आज फिर कोई इसका शिकार हुआ.

सुबह माता जी ने बतलाया,
आज फिर एक भ्रूण पाया गया है.
सरोवर को एक और,
बच्ची के भ्रूण का भोग लगाया गया है.

अब बस करो ये नरसंहार,
आज की बेटी बेटों से आगे है.
उसका चंदा मामा अब कहानियों में नहीं,
वो तो खुद उनसे मिलके आती है.

हर माँ बाप की लावण्या है,
हर माँ बाप की कीर्ति है.
मान है वो सम्मान है वो,
हम सब की जननी है वो.

--नीरज

दहेज़ प्रथा

आज ही के दिन साल भर पहले,
घर में शेहनाईयां गूंझ रहीं थीं.
खुशियों का पड़ाव था घर में,
चेहरों पे सब के मुस्कान फूट रही थी.

होती भी क्यों ना,
एक लौती बिटिया की शादी जो थी.
नाज़ से जिस को हथेली पे पाला था,
उसकी घर से विदाई जो थी.

विदाई हुई,
माँ की देहलीज़ अब पराई हुई,
बचपन उस घर में छोड़ चली,
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई.

एक महीने में ही,
खुशियाँ फाकता हो गयीं.
"इनके" दहेज़ के लालच में,
मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ही भारी हो गयी.

बहुत समझाया पर ये एक न माने,
कभी माँ-बाप के नाम पे तो,
कभी सुहाग के नाम पे,
मुझे ही उल्टा धमकाते रहे.
वक़्त गुज़रता रहा, सिलसिला चलता रहा,
हर दिन यूँही प्रताडित करते रहे.

काश के माँ-बाप ने लड़ना सिखाया होता,
कुछ दिन और रुक कर,
अपने पैरों पे चलना सिखाया होता.
पराया धन न समझा होता,
बोझ समझ के न उतारा होता.

कब तक यूँही खामोशी से पिसेंगे?
कब तक यूँही ससुराल में जलेंगे?
सवाल है तुम लड़कों के दलालों से,
हम कब तक इस ज्वलन प्रथा की आग में जलेंगे?

अब पंखा ही मेरी नियति बन गया,
एक और दहेज़ प्रताडित बहु पे हार चढ़ गया....

--नीरज

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

मौत.....

मौत.....
एक अनसहा अहसास, एक खौफ, एक सच, एक अकस्मात क्रिया
ऐसे कई शब्द समाये हुए है ये शब्द.......मौत

चुपके से, आहिस्ता से सब कुछ शांत कर जाती है,
इंसान को बेबस कर उसकी हद पार कर जाती है तू।

साथ में अपने एक को ले जाती है,
पीछे कईओं को तड़पता छोड़ जाती है तू।

सब जानते हैं नसीब में है सब के तू,
फिर न जाने क्यों सब के दिल का खौफ बन जाती है तू।

मौत.....
एक क्षण, एक रहस्य, एक कल्पना,
इसे कोई समझ पाया है तो वो है सिर्फ और सिर्फ......मौत

--नीरज

सोमवार, अप्रैल 06, 2009

नारी

9 दिन व्रत के बीत गए,
कन्या जिमा के व्रत खुल गए.
न जाने कहाँ से संस्कारों की याद आई
एक बाप की काली करतूत से भरे अखबार के पन्ने खुल गए।

संस्कार सिखाने वाला बाप बेटी को नोच रहा था
रक्षा करने वाला भाई बहन को टोंच रहा था।
कई साल से पत्थर की मूर्ती को पूज रहा था,
पर घर की ही देवी को लूट रहा था।

क्या येही हमारी संस्कृति है?
आस्था ही है या ढौंग है?
कई सवाल ऐसे ही मस्तिष्क मेंमेरे दौड़ रहे हैं।

कहीं दहेज़, कहीं लड़के, कहीं बाँझपन के लिए
नारी को छोडा जाता है।
कहीं देवी बना के पूजा जाता है,
कहीं चुडैल बता के मारा जाता है।

पत्थर की मूरत को पूजने से पहले,
गृह-लक्ष्मी को क्यों नहीं पूजा जाता?
इस अँधेरी संस्कृति का मूँह सूरज
की ओर क्यों नहीं मोडा जाता?

--नीरज

एक संस्कृत श्लोक बचपन में पढ़ा था -

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवताः
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते, तत्र न रमन्ते देवताः

अर्थात -

जहाँ नारी की पूजा होती है वहीँ पर देवों का वास होता हैऔर जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती वहां देवों का वास नहीं होता.

रविवार, मार्च 29, 2009

मेरा भारत महान

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?
बतादो मुझे वो कहाँ हैं, कहाँ हैं?

गरीबों के बच्चे वो भूखे वो नंगे,
एक बूँद दूध पे रोते-बिलखते वो बच्चे.
बिना बाप की पहचान के कई ऐसे बच्चे,
अमीरों की जूठन पे पलते वो बच्चे.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

ये देखो शरीफ जेब कतरों की दुनिया,
ये देखो रिश्वत खोरों की दुनिया.
पैदा होते ही बच्चा देता है रिश्वत,
गंगा के घाट पर भी होती है रिश्वत.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

गरीबों की बस्ती में प्रचंड है भूख की हस्ती,
किसान आज भी फसल की जगह बेचता है बच्ची.
चिडिया का निवाला लोग छीनते हैं अब भी,
यम् ही मिटाता है भूख-प्यास की हस्ती.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

धर्म के नाम पे आज भी लोगों को भड़काया जाता है,
कुर्सी के खातिर आज भी मासूमों का रक्त बहाया जाता है.
आज भी दिल में मज़हब की दीवारें खड़ी करते हैं चंद लोग,
आज भी भाई चारे को ठेस पहुंचाने की कोशिश करते हैं चंद लोग.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?
बतादो मुझे वो कहाँ हैं, कहाँ हैं?

--नीरज

सृष्टि


क्षितिज पे चढ़ता आता था, रवि ददकता जाता था,
सुबह की पावन किरणों के साथ गगन चमकता जाता था।
छोड़ घोंसले पंछी दाना चुगने भागे जाते थे,
घंटी बांधे सभी मवेशी गुबार उडाये जाते थे।
शीतल पवन वृक्षों को थपकी देती जाती थी,
नदिया जब पत्थर से टकराती थी तो किलकारी करती जाती थी।

सृष्टि है सप्तक जीवन का, जीवन तो बस वाणी है,
वाणी बिन सुर नीरस है, सुर बिन वाणी सूनी है।
जैसे जैसे धुआं बढ़ता जाता है,
सुर फीका पड़ता जाता है, वाणी भी थर्राती है,
हर रात ही अमावस की जान पड़ती है,
हर नई सुभे धुंधली पड़ती जाती है।

बहुत कशमकश के बाद किरण जगाती है हम सब को,
अब हवा के गरम थपेडे मिलते हैं सब वृक्षों को।
नदियाँ साड़ी सूख चुकीं हैं, नाले में बदल चुकीं हैं,
मवेशी सारे सूख चुके हैं, चिडियां साड़ी टपक चुकी हैं।

किरण सुबह जगाती है सबको, कब हम इस को जगायेंगे,
हटा धुएँ की छत्री को कब सुर-वाणी को मिलायेंगे?

--नीरज
04/06/2004

सोमवार, मार्च 23, 2009

चुनाव की तयारी

शोर मच रहा है, शहर सज रहा है,
कहीं हाथ, कहीं भगवा सज रहा है।

फिर आये हैं मेरे दर पे वादों की पर्ची लेकर,
पर बैठा हूँ इस बार में पिछले वादों की पर्ची लेकर।
बतला देता हूँ, नए वादों पे वोट न डालूँगा तुमको इस बार,
पूरे हुए पिछले वादों पे आन्कूंगा तुमको इस बार।

५ मिनट को गड्ढा खोदने या झाडू लगाने से वोट न मिलेगा,
जनता का जिसने काम किया उस पर ही बस मुकुट सजेगा।
संसद में सोने वालों को जुलाब की गोली मिलेगी,
वहां काम करने वाले को फिर ताज पोशी मिलेगी।

बीत गए दिन अब वो जब वोट खरीदे जाते थे,
जाती, धर्म, के नाम पे लोग भड़काए जाते थे,
तुम भी जाग जाओ ए सफ़ेद पोश,
जनता जाग गयी है, बीत गए दिन जब तुम धुल झोंक के जाते थे।

अन्धकार छंट चुका है, पौ फट चुकी है,
इस बार कोई घोटाला न करना,
क्योंकि सुबह हो चुकी है...

-- नीरज

रविवार, मार्च 22, 2009

चुनाव आ रहे हैं....

सालों साल लड़े जिस टुकड़े पर आज उसे बंजर किया,
रंगरलियाँ करने को पूरी रिश्वत का शंख-नाद किया।
वो लड़े मरे इस मात्रि भूमि पर, निछावर घर परिवार किया,
हमने सूक्ष्म उन्नति कर, बलिदान का उपहास किया,

चुनाव आने पर सड़कें आधी बनवाते हो,
और बाकी आधी अगले चुनाव आने पर बनवाते हो।
पांच साल में अपने घर भर लेते हो,
छटे साल से पांच गरीब गोद क्यों नहीं ले लेते हो?

कभी उन तंग गलिओं में बिफरती जिंदगियां देखना,
अपने बच्चों को मौत के हवाले करते मजबूर बाप से पूछना,
किस चिह्न पर मोहर लगायेगा उससे पूछना,
न हाथ न कमल दिखेगा उसको, रोटी तलाशती उसकी निगाहें देखना।

फिर चुनाव आ रहे हैं, तम्बू सज रहे हैं,
गरीबों के झोपडे में इस बार भी बम्बू सज रहे हैं।

- - नीरज

शनिवार, मार्च 21, 2009

कलयुग

आज रात एक अजीब सा द्रश्य देखा,
दो नंगे जिस्मों को आलिंगन कर बैठे देखा.

अमावस की रात तो नहीं थी न जाड़ा घनघोर था,
हजारों गाडियाँ रोशन थीं, धुएं से माहोल गर्म था.

आश्रम* की लाल बत्ती पे खडा था हरी होने के इंतज़ार में,
90 second बस यही सोचता रहा - ये नंगे जिस्म हैं किस फ़िराक में?

गरीबी के उन गर्म थपेडों में बारिश ने सिरहन भर दी,
नंगे जिस्म अब और लिपट गए, बारिश ने आँखें भर दीं.

10 second बचे थे कुल अब, accelerator की आवाज़ बढ़ी,
उन दो बच्चों की परछाई कुल दो फ़ुट तक बस और बढ़ी.

कलयुग में राम-लखन आज मैंने देखे,
लक्ष्मण को ठण्ड से बचाने को आतुर राम फुटपाथ पर देखे.

*आश्रम दिल्ली में एक जगह का नाम है

- - नीरज भार्गव

रविवार, फ़रवरी 22, 2009

अन्तिम हार

टप टप बूंदों की आवाज़ सुनाई देती है,
आंसू की हर बूँद लहू दिखाई देती है!
दायें हाथ में खंजर बाएँ पे धार दिखाई देती है,
टप टप बूंदों की आवाज़ सुनाई देती है....!

धीरे धीरे आती है बेहोशी सी, मद होशी सी,
ठंडक बढती जाती है, कोहरा छाता जाता है,
यादें आती जाती हैं, जीने की याद दिलाती जातीं हैं!
टप टप बूंदों की आवाज़ सुनाई देती है,
आंसू की हर बूँद लहू दिखाई देती है!

ठंडी अमावस की रात है, कुछ पल बस और हैं,
कठपुतली ये रूह अब न और है!
टप टप बूंदों की आवाजें अब न और है,
चीखों का विस्तार है, सन्नाटा अब न और है!

हर एक बूँद लहू की आंसू से चार हुई।
एक बुजदिल की ये आखरी हार हुई.....!!!!
-- नीरज

शनिवार, फ़रवरी 14, 2009

यादें

बैठ के वो हम दोनों का बेमतलब पहरों हँसना,
तेरी वो खिली खिली मुस्कराहट आज भी मुझे याद है!

तुझे छूने पे शर्मा के वो ख़ुद में ही सिमट जाना तेरा,
तेरी आंखों में वो प्यार की चमक आज भी मुझे याद है!

मिलने के लिए तेरा वो चोरी से निकलना,
घर से फ़ोन आने पे तेरा वो घबराना आज भी मुझे याद है!

जुदाई का दिन भी नहीं भूला में अभी तक,
तेरे मोती तो नहीं चुने मैंने पर तेरी सिसकियाँ आज भी मुझे याद हैं!

मंगलवार, फ़रवरी 03, 2009

मिट्टी का घर

ये कविता समर्पित है मेरे स्वर्गीय दादाजी एवं दादीजी को जिन्हों ने ये घर बनाया था और मैंने और मेरे भाइयों ने कई गर्मियों की छुट्टियाँ उनके साथ यहाँ पर बितायीं.
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पौ फटा करती थी फ़िर एक नई सुबह हुआ करती थी,
श्वेत किरणों, बैलों की घंटी से फ़िर एक उज्वल दिन की शुरुआत हुआ करती थी !

खाट पे सोया करते थे, कम्बल को ओड़ा करते थे,
जाड़ा सुबहे बहुत सताता था, तब चाय का प्याला याद आता था !
कुँए पे नहाया करते थे, इमली पे खेला करते थे,
ज्यों-ज्यों दिन ढलता जाता था, कृष्ण धवल को ग्रस्ता था !
संध्या प्रभात का मंज़र फ़िर दोहराती थी,
घंटियों का स्वर, धूल का गुबार वो घर फ़िर महका देती थी !
वो घर था मिट्टी का, छप्पर की थी छत....!

पर अब ये मंज़र बस एक सपना है, वो घर अब न अपना है,
वीरान पड़ा है वो घर अब भी, उस घर में अब शाम ढली है !
लौटा नहीं है कोई मवेशी, घंटी का स्वर वीरान पड़ा है !
लीपा करतीं थीं दादी जिसको, तीन कमरे और एक रसोई थी जिस में,
अब आधी दीवारें खड़ी हुईं हैं, आँगन भी वीरान पड़ा है !

पौ फटती नहीं है, रात जाती नहीं है,
वीरान पड़ा है, थका खड़ा है,
वो मिट्टी का घर, बिन छप्पर की छत !!!

------- Written on 20/11/2003

अनगिनत यादें अब भी दफन हैं इस मकान के आघोष में, जो बाहर चबूतरा और एक कमरा था, सुना है अब वहां पर कोई राहगीर नहीं बैठा करता, वहां से गुज़र कर सड़क अब शहर को जाया करती है!
और 5 मीटर मोटा इमली का पेड़ भी नसतो-नाबूत हो चुका है, कुछ लकडियाँ गांवों के घरो में जल चुकी हैं तो कुछ शहर के बाज़ार में बिक चुकी हैं !

---- नीरज भार्गव