शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

फौजी

दो देश लड़ रहे हैं,
सफ़ेद पोश सियासत खेल रहे हैं.
हम सरहद पे भूखे प्यासे,
द्रौपदी की साडी बुन रहे हैं.

दन-दन, घन-घन की आवाज़ बड़ी है,
दोनों तरफ लाशों की आबादी बड़ी है.
दिवाली इस बार लगता है थोडी लम्बी हो गयी,
*होली के इंतज़ार में सरहद पे ये टुकडी खडी है.

हर जोर लगा देंगे तुझे माँ हम बचा लेंगे,
आन बचाने को तेरी हम जां लुटा देंगे.
देश भक्ति का बीज लगा कर लहू से सींचेंगे,
लहू से सींचेंगे उसे माँ फ़सल बना देंगे.

विजय को स्वप्निल अबकी हम न होने देंगे,
जा चोटी पे ध्वज अपना ये फेहरा देंगे.
नहीं उठेंगी फिर नज़रें तुझ पर अब वो,
अबकी हम उनको ऐसा सबक सिखला देंगे.

बहुत सिखाया प्यार मगर क्या पाया हमने?
घुस आये भीतर घर में क्या पाया हमने?
दुसाहस मत करना हम प्रहरी जाग रहे,
दुसाहस पे तुमको हम ललकार रहे.

*(होली - लाल रंग यानी की शहीद भी होना पड़ा तो उसके लिए तैयार है फौजी)

--नीरज

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