9 दिन व्रत के बीत गए,
कन्या जिमा के व्रत खुल गए.
न जाने कहाँ से संस्कारों की याद आई
एक बाप की काली करतूत से भरे अखबार के पन्ने खुल गए।
संस्कार सिखाने वाला बाप बेटी को नोच रहा था
रक्षा करने वाला भाई बहन को टोंच रहा था।
कई साल से पत्थर की मूर्ती को पूज रहा था,
पर घर की ही देवी को लूट रहा था।
क्या येही हमारी संस्कृति है?
आस्था ही है या ढौंग है?
कई सवाल ऐसे ही मस्तिष्क मेंमेरे दौड़ रहे हैं।
कहीं दहेज़, कहीं लड़के, कहीं बाँझपन के लिए
नारी को छोडा जाता है।
कहीं देवी बना के पूजा जाता है,
कहीं चुडैल बता के मारा जाता है।
पत्थर की मूरत को पूजने से पहले,
गृह-लक्ष्मी को क्यों नहीं पूजा जाता?
इस अँधेरी संस्कृति का मूँह सूरज
की ओर क्यों नहीं मोडा जाता?
--नीरज
एक संस्कृत श्लोक बचपन में पढ़ा था -
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवताः
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते, तत्र न रमन्ते देवताः
अर्थात -
जहाँ नारी की पूजा होती है वहीँ पर देवों का वास होता हैऔर जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती वहां देवों का वास नहीं होता.
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