ख्वाबों ही ख्वाबों में आज एक ख्वाब देखा,
हकीक़त सा लगा जब उसे छूके देखा.
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दुल्हन बनी थी, सजी खड़ी थी
बहुत लोग इर्द गिर्द थे उसके.
हर्ष था उलास था सब के ललाट पे
पर शिकन न थी चेहरे पे उसके.
न मंडप था न पंडित
कुछ अटपटा सा नज़ारा था.
ढोल नगाडे सब ओर बज रहे थे
नाचता जहान हमारा था.
हकीकत देखि तो सिहर उठा
ख्वाब उसी पल खाख हुआ.
झूठे सच्चे वादों में
फिर नारी का नाश हुआ.
ये तो मात्र भूमि थी अपनी
इसका ये क्या हाल हुआ।
फिर पांचाली बन बैठी,
देश फिर गठबंधन का शिकार हुआ।
न जाने कौन कौरव कौन पांडव
अब तू न बचने पाएगी।
एक ओर दासी बन जायेगी,
तो दूजी ओर फिर जुए में हारी जायेगी.....
--नीरज
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