बुधवार, अप्रैल 15, 2009

गठबंधन

ख्वाबों ही ख्वाबों में आज एक ख्वाब देखा,
हकीक़त सा लगा जब उसे छूके देखा.
*************************************************
दुल्हन बनी थी, सजी खड़ी थी
बहुत लोग इर्द गिर्द थे उसके.
हर्ष था उलास था सब के ललाट पे
पर शिकन न थी चेहरे पे उसके.

न मंडप था न पंडित
कुछ अटपटा सा नज़ारा था.
ढोल नगाडे सब ओर बज रहे थे
नाचता जहान हमारा था.

हकीकत देखि तो सिहर उठा
ख्वाब उसी पल खाख हुआ.
झूठे सच्चे वादों में
फिर नारी का नाश हुआ.

ये तो मात्र भूमि थी अपनी
इसका ये क्या हाल हुआ।
फिर पांचाली बन बैठी,
देश फिर गठबंधन का शिकार हुआ।

न जाने कौन कौरव कौन पांडव
अब तू न बचने पाएगी।
एक ओर दासी बन जायेगी,
तो दूजी ओर फिर जुए में हारी जायेगी.....

--नीरज

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.