बुधवार, मार्च 31, 2010

छाले



कुछ नन्हे हाथों को आज हाथ छुडाते देखा है,
उन कोमल हाथों पे छालों का एक गुलदस्ता देखा है.
तपती कंकरीली धरती पे दिन भर रेंगते देखा है,
खाने के चंद निवालों पे मैंने उनको पिटते देखा है.

भूख मिटाने की खातिर यहाँ रूह नाचती देखी है,
हर गाडी में झांकती उनकी आस टपकती देखी है.
हंस कर जीने की आशा को आंसू में बहती देखा है
एक सिक्के की खातिर मैंने ज़िन्दगी भागती देखी है

--नीरज

रविवार, मार्च 28, 2010

निशाँ उनके


वो चल दिए यूँ हम से हाथ छुड़ाकर,
दूर तक तकते रहे हम निशाँ उनके.
सोचा कभी मिलजायेंगे राह में इक रोज़,
दर-बदर ढूंढते रहे हम निशाँ उनके.

रात की वीरानिओं में खो गये जाने कहाँ,
चाँद भी पहचान न पाया निशाँ उनके.
नीर से गुजरी है वो कुछ इस कदर देखो,
वहां भी मिल न पाए निशाँ उनके.

--नीरज

शनिवार, मार्च 27, 2010

भरम है या हकीकत कोई?



जी चाहता है की तेरे दिन को अपनी शाम से मिला दूँ,
जो लाली उपजे इस मिलन से उसे तेरे माथे पे सजा दूँ.

घुल जाएँ दो पहर जो हैं कुछ जुदा-जुदा से,
बाहों में आओ तो तुम्हे रोम-रोम में बसा दूँ.

राहों में खड़ी दूरियाँ सिमट जाएँ सभी,
जो मैं तेरी हथेली से हथेली मिला दूँ.

आसमान रात भर तरसता रहे दीदार को,
तेरी खातिर चाँद को मैं आँगन में बुला दूँ.

तेरे एहसास का भरम है या हकीकत कोई?
जो भी है, आ तुझे अपनी नज़रों में बसा दूँ.

-- नीरज

मंगलवार, मार्च 23, 2010

मिलन



आग को बाहों में थामे दूर
आकाश में उड़ रही थी रुई,
मुसाफिरों का कौतूहल
उड़ा रहा था धुल का गुबार,
गुन-गुनाते उड़े आ रहे थे आशियाने
में अपने वापिस मुसाफिर.
तो कहीं डाली पे बैठ कर
फिजा खिल-खिला रही थी,

चलो चलें हम भी कुछ
गीत गा लें, मुस्कुरा लें.
दिन का रात से मिलने
का समय हो गया है.

--नीरज

निशानी




रात की गहराई में जाने कहाँ
रोज़ फिरता हूँ दर-बदर,
छीनली हैं नींद मेरी जहान
ने आँखों से इस कदर.

ख्वाबों को आँखों में संजोय,
सहेज के रखा है कब से.
सरहद पलकों की पार न करदे,
बहलाया है उनको शब से.

सजदा मेरा ये आखरी है तुझसे,
आतिश ने मेरे ख्वाब जलाए हैं.
अगर आओ कभी कब्र पे मेरी,
निशानी है जहाँ ज़िन्दगी मुस्कुराए है...

--नीरज