रविवार, सितंबर 05, 2010

सीली ज़िन्दगी


गुज़र रहे हैं पल ख़ामोशी से,
लम्हा लम्हा सीला है.
खामोशी की आहट है बस
हर करवट दिल भीगा है.

तंग गलिओं के चोराहों पे
रोज़ नाचती है ज़िन्दगी,
हर कच्चे घर के आँगन में
सूरज अब तक भीगा है

जितने करवट ले लो चाहे,
ये नींद कभी न टूटेगी.
रात की दो रोटी का स्वाद
यहाँ तो अब तक फीका है.

--नीरज

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

लाल भारत



खूब उड़ा है लाल गुलाल,
रंग हुआ है देश का लाल.
मन मानी भाई करी है सबने,
कौन बना है देश का लाल??

लालगढ़ के लाल हैं लाल,
बरफ भी हुई है फिर से लाल.
परवाह है भाई तुमको किसकी,
लगा के घूमो बत्ती लाल.

डुबा-डुबा के डुबा दिया है,
खेल भी कर दिये तुमने लाल.
फिर भी शर्म से भैया तोरे,
नहीं हैं बिलकुल लाल ये गाल.

बढ़ा बढ़ा के बढ़ा दिया है,
महंगाई ने किया बवाल.
इच्छा है भाई सबकी अब ये,
तुम पे ठोकें जम के ताल.


जाने कैसे सुनोगे तुम ये,
कैसे होगी पतली खाल??

--नीरज

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

लिबास



तू आएगी न जाने किस लिबास में
दामन में गिरेगी या मुझे ले उड़ेगी,
न दाएरे होंगे न बंदिशें कोई किसी की,
सुकून को मेरे दामन में सौंप जायेगी.
छुउंगा आसमां, हवा को काटूँगा मैं,
सूरज की किरणों से मुझे पावन करेगी.

तू किसी रोज़ यूँही चली आएगी या
रोज़ एक अहसास के साथ आएगी.
कभी फुर्सत मिले तो बताना मुझे,
मौत तू किस लिबास में आएगी.

--नीरज

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

लहर



ये नदी और इस के ये दो किनारे,
सदियों से दो भाई जुदा हों, लगता है.
लहरें रोज़ आती हैं दोनों से मिलने,
दोनों को छूती हैं और चली जाती हैं.
कौन जाने ये कहीं बीच में ही खो जाती हैं या
एक भाई का सन्देश दुसरे को पहुंचती हैं.

कई दिन गुज़रे हैं तोहफा नहीं लायी लहर,
न सन्देश लायी है कोई उस पार से.
पिछली बार कुछ चिकने पत्थर आये थे,
तो कुछ यहाँ से भी भिजवाए थे जवाब में.
आज कल माहोल शांत है, यहाँ का भी वहां का भी,
लगता है लहर ने आज कल सीधा बहना सीख लिया है.

ये नदी और इस के ये दो किनारे,
सदियों से दो भाई जुदा हों, लगता है.

--नीरज

सोमवार, जून 21, 2010

फासले



चाहतें हैं दरमियाँ, फिर भी दूरी न जाने क्यों है,
आहटें हैं दरमियाँ, फिर भी ख़ामोशी न जाने क्यों है?

आयतें लिखी हैं दिलों पे दोनों के एक ही,
भाषा खामोश ये दिल की न जाने क्यों है?

एक ही शहर में थामे खड़े हैं हाथ कबसे,
फिर भी मीलों की ये दूरी न जाने क्यों है?

सिमट आते हैं कभी रास्ते दरमियाँ अपने,
चाहत छिपाना तुझे लाज़मी न जाने क्यों है?

जुल्फों के ख़म मेरी नज़रों से सुलझाती है,
हथेली पे आइना फिर भी न जाने क्यों है?

--नीरज

ख़म = curls

सोमवार, मई 31, 2010

फलक



न जाने कब ये शाम का गोला ढल जाए.
और एक स्याह रात की चादर सिल जाए.
करोड़ों जगमगाते टुकड़े पैबंद हों उस पर,
स्याह शामियाने पे नक्काशी खिल जाए.

तू रोज़ देखता है टक-टकी लगाए मुझे.
बढाऊँ हाथ जो ऊपर, तू छिटक जाए मुझे
किसी रोज़ पैबंद हो जाऊं शामियाने पर,
ए खुदा तू कभी फलक पे बसा आए मुझे.

--नीरज

बुधवार, मई 26, 2010

तन्हाई



ए कलम काश मेरा भी कोई तेरे
कागज़ की तरह हमदम होता,
मेरे दिल से उमड़ती स्याही को
मैं किसी से तो बाँट पाता.

ए आंसू काश मेरा भी कोई तेरे
गाल की तरह हमराज़ होता,
मेरे बिखरते मोतिओं को
यहाँ कोई तो समझ पाता.

ए धरती काश मेरा भी कोई तेरे
आसमां की तरह हमजाद होता,
मेरी आग सी तपती रूह को
कोई तो ठंडा कर पाता.

--नीरज

मौन



मौन है क्यों मौन है
यहाँ सभा भरी क्यों मौन है,
क्या हुआ है यहाँ बताओ,
इस नीरस गढ़ का राज़ बताओ.
धुआं हुआ है बिन आग यहाँ क्या?
यहाँ सभा भरी क्यों मौन है?

रात बढ़ी है आहिस्ता से
यहाँ अन्ध्यारा क्यों चोर है,
क्या हुआ है यहाँ बताओ,
इस खामोशी का राज़ बताओ.
भूख पड़ी है भूखी भी अब
यहाँ सभा भरी क्यों मौन है?

--नीरज

मंगलवार, मई 25, 2010

हम



कुछ ख्वाब तुमने बुने थे,
कुछ मैंने, कुछ हमने
और कुछ अध्बुने ही रह
गये थे वक़्त की मेज़ पे.
तुम वो खवाब मुझ से और
मैं तुमसे मांगता रहा,
आज जब कई साल बाद
मैंने महसूस किया कि वो
न तुम्हारे पास थे और न मेरे,
वो ख्वाब आज भी वक़्त की मेज़
पर महफूज़ उसी करवट सोये हुए हैं.
अफ्सोस इस ज़िन्दगी की दौड़
में हम एक दुसरे से बहुत
दूर निकल आये हैं.
अब न तुम हो, न मैं,
न वक़्त और न ही हम.

--नीरज

शनिवार, मई 08, 2010

बुत

ये दुनिया 
बड़ी नादान है, 
हर रंगीन 
बुत को 
भगवान 
समझ लेती है. 
हाथ बढ़ा दे 
गर कोई 
प्यार का.
रावन को भी
राम समझ
लेती है.

--नीरज 

कश्ती

ख़्वाबों की एक कश्ती है,
जो पलकों की वादी के पार
रोज़ चली आती है.
कभी सतरंगी ख्वाब लाती है
कभी बेरंगी ख्वाब सजा लाती है.

--नीरज

शुक्रवार, मई 07, 2010

Friendship (Amistad)



Hi all, This is my first Spanish poem and I want to share it with you all. Its about friendship and its as simple as the friendship. I have done the english translation as well in the end. :)

En Español (In Spanish)
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Mi vida es especial contigo,
Tu eres mi respiración mi amigo.
Que belleza brotaba de nuestra amistad,
No me imagino un dia sin ti.

Mi amigo apasionado, inocente como el mar,
La llama de la amistad nunca se extinguirá en la vida como el mar.
La magia de nuestra amistad es increíble,
Es muy fascinante lo que quiero decirte.

Mi vida es especial contigo,
Tu eres mi alma mi amigo

--Neeraj
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In English (En Inglés)
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My life is special with you,
You are my breath my friend.
What a gushing beauty of our friendship,
I can not imagine a day without you.

My friend - passionate, innocent as the sea,
The flame of friendship will never be extinguished in the life as the sea.
The magic of our friendship is incredible,
I want to tell you, how fascinating it is.

My life is special with you,
You are my breath my friend.

--Neeraj

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

ये रात है बड़ी





ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

इस खुदाई रात में हम आसमां देखते रहे,
कुछ तारे जगमगाते रहे कुछ यूँही टूटते रहे.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

उफक तक देखते रहे रास्ता तेरा,
अँधेरा कर गया बस फासला तेरा.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

--नीरज

शनिवार, अप्रैल 10, 2010

बातें वो अनकही सी



बहुत बार कही,
मगर कई बातें बेजुबां सी
लबो तक आने को लफ्ज़ ढूंढती रही .
बिलखते से जज्बात की तरह
जहन में कौंधती रहीं.

तुमने देखा नहीं शायद,
मेरी पलकों के साहिल पे
उन्हें खामोश बैठे हुए.
छूकर जो गुजरी यादो की बदली,
आँखों को समंदर करती रही.

बातें वो अनकही सी
तड़पती मोंज कि तरह.
पलकों को मेरी भिगाती रही.

--नीरज
Thanx to Vandana too who helped me with this creation. :)

शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं



गिरह में लिपटी हैं कुछ रात तुम्हारी,
कुछ कागज़ के पन्नों पे बिखरी हैं.
कुछ बारिश में भीग रहीं हैं,
कुछ मिटने का बहाना ढूंढ रहीं हैं.
आजाओ किसी रोज़ एक बार फिर तुम भी,
कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं.

सूखे लबों से कंप-कंपाती याद तुम्हारी,
मयखाने से भी आज प्यासी लौटी है.
लहर-ए-हिज्र में तनहा डूब रही है,
महफ़िल में वो भी तनहा घूम रही है
आजाओ किसी रोज़ एक बार फिर तुम भी,
कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं.

--नीरज

बुधवार, मार्च 31, 2010

छाले



कुछ नन्हे हाथों को आज हाथ छुडाते देखा है,
उन कोमल हाथों पे छालों का एक गुलदस्ता देखा है.
तपती कंकरीली धरती पे दिन भर रेंगते देखा है,
खाने के चंद निवालों पे मैंने उनको पिटते देखा है.

भूख मिटाने की खातिर यहाँ रूह नाचती देखी है,
हर गाडी में झांकती उनकी आस टपकती देखी है.
हंस कर जीने की आशा को आंसू में बहती देखा है
एक सिक्के की खातिर मैंने ज़िन्दगी भागती देखी है

--नीरज

रविवार, मार्च 28, 2010

निशाँ उनके


वो चल दिए यूँ हम से हाथ छुड़ाकर,
दूर तक तकते रहे हम निशाँ उनके.
सोचा कभी मिलजायेंगे राह में इक रोज़,
दर-बदर ढूंढते रहे हम निशाँ उनके.

रात की वीरानिओं में खो गये जाने कहाँ,
चाँद भी पहचान न पाया निशाँ उनके.
नीर से गुजरी है वो कुछ इस कदर देखो,
वहां भी मिल न पाए निशाँ उनके.

--नीरज

शनिवार, मार्च 27, 2010

भरम है या हकीकत कोई?



जी चाहता है की तेरे दिन को अपनी शाम से मिला दूँ,
जो लाली उपजे इस मिलन से उसे तेरे माथे पे सजा दूँ.

घुल जाएँ दो पहर जो हैं कुछ जुदा-जुदा से,
बाहों में आओ तो तुम्हे रोम-रोम में बसा दूँ.

राहों में खड़ी दूरियाँ सिमट जाएँ सभी,
जो मैं तेरी हथेली से हथेली मिला दूँ.

आसमान रात भर तरसता रहे दीदार को,
तेरी खातिर चाँद को मैं आँगन में बुला दूँ.

तेरे एहसास का भरम है या हकीकत कोई?
जो भी है, आ तुझे अपनी नज़रों में बसा दूँ.

-- नीरज

मंगलवार, मार्च 23, 2010

मिलन



आग को बाहों में थामे दूर
आकाश में उड़ रही थी रुई,
मुसाफिरों का कौतूहल
उड़ा रहा था धुल का गुबार,
गुन-गुनाते उड़े आ रहे थे आशियाने
में अपने वापिस मुसाफिर.
तो कहीं डाली पे बैठ कर
फिजा खिल-खिला रही थी,

चलो चलें हम भी कुछ
गीत गा लें, मुस्कुरा लें.
दिन का रात से मिलने
का समय हो गया है.

--नीरज

निशानी




रात की गहराई में जाने कहाँ
रोज़ फिरता हूँ दर-बदर,
छीनली हैं नींद मेरी जहान
ने आँखों से इस कदर.

ख्वाबों को आँखों में संजोय,
सहेज के रखा है कब से.
सरहद पलकों की पार न करदे,
बहलाया है उनको शब से.

सजदा मेरा ये आखरी है तुझसे,
आतिश ने मेरे ख्वाब जलाए हैं.
अगर आओ कभी कब्र पे मेरी,
निशानी है जहाँ ज़िन्दगी मुस्कुराए है...

--नीरज

शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा



ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?
उलझी हुई कई रातें तू यूँही सुलझा देती है.
उगते सपने कई तू हकीकत में ले आती है,
आसमान से तोड़ देती है सितारे अनगिनत ,
तोड़ के तू मेरी झोली में जड़ने चली आती है.

ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?
प्यार की पवन से मेरी जुल्फें सहलाती है.
रात भर उंघती आँखों में नींद दे जाती है,
देखा नहीं तुझे तोड़ते गुलशन से फूल कोई,
काँटों के सेज को भी पल में फूल बना देती है .

तु ही रुलाती है कभी, तू ही हंसा देती है.
ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?

--नीरज

मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010

हुंकार




दायरे ऐसे भी बनते हैं कि फिर मिटते नहीं,
लुट जाती हैं हस्तियाँ, कारवां मिटते नहीं.

जितना चाहे रौन्दलो या चाहे कितना तोड़लो,
हौसले फौलादों के आग से जलते नहीं.

रात के हों घुप्प अँधेरे या कई साये घनेरे,
रौशनी की इक किरण के सामने डटते नहीं.

चाहे मीलों हो गगन या कहीं क्षितिज मिलन,
छूने के मंसूबे अपने साँझ संग ढलते नहीं.

शीश उठते हैं गर्व से या जंग में कटते हैं गर्व से,
आजाते हैं जो हम राह में तो मौत से डरते नहीं.

बांधलो चाहे कहीं भी या कहीं भी रोकलो,
"नीर" के भीषण थपेड़े रोकने से रुकते नहीं.

--नीरज

शनिवार, जनवरी 30, 2010

सुबह की कटारी से रात काटी है



स्याह रात तेरी याद में काटी है.
सुबह की कटारी से रात काटी है.

मुस्कुराता हूँ देख के तुझे यूँ,
जैसे छत्ते से मैंने शहेद चाटी है.

खोई हो सिलवटों में ज़िन्दगी की,
मैंने उम्र एक गिरह में काटी है.

लिख-लिख के थक गया हूँ तुझे,
कागज़ की सिल पे याद बाटी है.

फिसल गए हैं हम ज़िन्दगी से,
जैसे दिल नहीं,चाक की माटी है.

-नीरज

बाटी - पीसने को भी बोलते हैं. जैसे की पत्थर की सिल पे चटनी बाटना.

रविवार, जनवरी 24, 2010

घुंघरू




कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं
कुछ टूटी, कुछ झड़ी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की इमारत पे.
दरवाज़े पे हुई नक्काशी अब कुछ
झड सी गयी है,
छतों पे जड़े झूमर भी अब कुछ
टूट गए हैं, कुछ लदक गए हैं.

वो सफ़ेद चादरें, जो लाल कालीन
की शोभा बढाया करतीं थीं,
अब किसी कोने में मुच्डी पड़ी हैं.
आज भी छम छम की आवाजें
इन दीवारों से आती हैं.
कुछ टूटे घूंगरू आज भी
रंग महल में बिखरे पड़े हैं.
गजरे से गिरे फूल आज भी
रंग महल को महका रहे हैं.
कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की चादर पे.

नवाबों का राज ख़त्म हो गया,
और यहाँ की रंगत खाख हो गयी.
ये रंगीन गलियां, ये चौराहे भी अब
तंग गलिओं में जा बस गए.
पर ख़त्म नहीं हुआ तो बस नज़रिया.
न जाने कब हमारे बच्चे फक्र
से सभी के साथ पढ़ा करेंगे?
लोग तिरछी निगाहों से नहीं देखेंगे?
पैदा होते ही लड़की की रूह नहीं मारेंगे?
कुछ थकी, कुछ दर्मन्दाह सी मैं,
लाई हूँ सवालों को ख़ुदा तेरे दर पे.


दर्मन्दाह - Helpless

--नीरज

सोमवार, जनवरी 18, 2010

ऐ दुनिया तेरे कितने रंग ...



 

यह मेरी और मेरी मित्र वंदना की सांझी नज़्म है....




सच होता निलाम देखूं ...या झूठ के लगते दाम देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखू

धर्म पे लगते बाजार देखूं ,संक्रमण सा फैला भ्रस्टाचार देखूं
लहराती फसल देखूं या देश में उगती खरपतवार देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं

त्यौहारों के सजे पंडाल देखूं, हर गली में मचा हाहाकार देखूं
ललाट पे सजता सिन्दूर देखूं या खून सने हाथ लाल देखूं.
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं
.
नन्हे हाथों में औजार देखूं, गंगन चुम्बी मीनार देखूं
देश का विकास देखूं या भविष्य की ढहती दीवार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं

बुराई के चक्रव्यू में फसां खुद को अभिमन्यु सा लाचार देखूं .
कोरव सी सेना पर इतराऊं या अंधे की सरकार देखूं
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं

सच को होता निलाम देखूं ..या झूठ के लगते दाम देखू
ऐ दुनिया तेरे कितने रंग मैं क्या देखूं क्या न देखूं


--नीरज & वंदना 

शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

Ethunasia - Mercy Death






ये कृति एक Spanish फिल्म Mar Adentro जिसका मतलब है The Sea Inside से inspired है. जिस में की नायक Quadriplegia का शिकार होता है और 30 साल कोर्ट में ethunasia के लिए लड़ता है और अंत में हार जाता है.

*Quadriplegia = एक ऐसी बीमारी जिस में की गर्दन से नीचे का शरीर काम करना बंद कर देता है.
*Ethunasia = Mercy Death के नाम से भी इसको जाना जाता है. जिस में की पीड़ित को ज़हर का injection देकर मौत दे दी जाती है.

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चुभते, सताते, कुल-बुलाते
ज़िन्दगी के 30 साल इस
बिस्तर पे यूँहीं गुज़र गए.

सागर की फिजा, छोटी सी
उस खिड़की से बहकर यादें
ताज़ा करने चली आती है.
ज़िन्दगी रोज़ मौसम बदलते
देखती है और हर रात,
मौत मांगने चली आती है.

30 साल बिस्तर पे पाला
घरवालों ने मुझको और
अपनी ख़ुशी खाख करदी.
मैं मौत के रूप में खुशियाँ
मांगता रहा उनकी, न्याय
ने उसको भी राख करदी.

मेरे पैर में थिरकन हुई है
मेरे हाथ फिर हिले हैं.
छलांग मारी है उस खिड़की
से और उड़ चला हूँ दूर बहुत दूर,
इस अथाह सागर के ऊपर से उड़
चला हूँ दूर बहुत दूर.
वो खिड़की से आती फिजा अब
मुझ में भरी जा रही है,
लगता है ज़हर ने मेरी
दुआ कबूल कर ली.

--नीरज

मंगलवार, जनवरी 12, 2010

पल





इक अकेली शाम से कुछ पल तेरे,
अपने लिए चुन लिए थे मैंने,
उस आधे घंटे की मुलाकात में
कई ख्वाब बुन लिए थे मैंने.

कजरारी आखों से तेरी कुछ
सुनहरे पल समेट लिए थे मैंने.
थर-थराते गुलाबी लबों से तेरे,
बिखरते लफ्ज़ चुन लिए थे मैंने.

गालों पे फैलती-सिमटती लाली को,
सहेज के दिल के पन्नों में रख लिए थे मैंने.
तेरे जुल्फों को संभालते पलों को,
इस शाम की माला में पिरो लिए थे मैंने.

इस शाम के गुज़रे पलों को मैंने,
सहेज कर, शाम की माला में पिरो के
याद की मेज़ पर रख लिया है.
न जाने ये शाम कभी लौटे न लौटे.......

--नीरज

सोमवार, जनवरी 11, 2010

School की कुछ यादें.....







शर्ट पे सेफ्टी-पिन से लगा रुमाल,
गले में वाटर बोतल,
पीठ पर एक भारी बसता.
अब भी वो दिन याद आते हैं.

वो रबर-पेंसिल पर लड़ना झगड़ना,
झूले से गिर के फिर उठना,
हर बात पर मैडम से शिकायत.
अब भी वो दिन याद आते हैं.

पढने के नाम पर बहाने बनाना,
किताब के अन्दर कॉमिक को पढना,
हिस्ट्री के 
पीरियड में टिफिन खाना.
अब भी वो दिन याद आते हैं,

काश के कोई लौटा दे वो
मासूम दिन, पढाई की रातें,
गर्मी की छुट्टी, वो माँ की डाँटें
काश को कोई लौटा दे एक बार.....

--नीरज
 

रविवार, जनवरी 10, 2010

याद





वो मंज़र कभी याद आते हैं ,
कभी आँखों से बरस जाते हैं.

रह जाते हैं ठहर कर गालों पर,
मुस्कान बन बिखर जाते हैं.

दिन भर रहते हैं संग मेरे,
रात में तारे बन जगमगा जाते हैं.

चुभते हैं दिन भर दिल में मेरे,
रात होते ही महेक जाते हैं.

उठते हैं अंगार बनके ज़हन में,
राख बनके बिखर जाते हैं .

--नीरज



बुधवार, जनवरी 06, 2010

त्रिवेणी 2




बोने से बबूल आम नहीं मिलते कभी,
खार से तो बस हाथ ही छिला करते हैं.

सुना है पडोसी देश आतंकवाद का शिकार है.



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घूमता है कुम्हार का चाक जब
कितना हुनर बिखेर देता है जग में.

ये बता ए वक़्त तेरा कुम्हार कहाँ बस्ता है?



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खिंच जाते हैं जब कुछ बाण तरकश से,
छूट ही जाते हैं वो धनुष से अक्सर,

शब्दों ने भी मेरे शिकार करना सीख ही लिया है.


--नीरज

सोमवार, जनवरी 04, 2010

त्रिवेणी

चांदनी है जब तक ज़मीन पर कोई चाँद को देखता तक नहीं,
जो आजाती है अमावस बीच में, चाँद की कमी खलने लगती है.

रिश्तों ने भी आज कल कुछ यूँही घटना बढ़ना सीख लिया है.

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रवि इत्मिनान से आता है आज कल,
चाँद 14 घंटे मशक्कत करता है.

गरीब के ठिठुरने के दिन आ गए हैं.

--नीरज

शनिवार, जनवरी 02, 2010

सुनहरे ख्वाब









मेरे दादी-दादाजी और गाँव के उस कच्चे मकान की प्यारी याद में जो अब बस याद और ख्वाब में ही नसीब हैं.


आसमान के सितारे हर रात उतर के 
मेरी आँखों में झिलमिलाने चले आते थे,
चाँद रोज़ उतर के थपकी देता था, फिजा
लोरियां सुनाती थी. 
कई ख्वाब फलक से तोड़े थे वहां पर.


रात की बेहोशी में मैंने कुछ ख्वाब
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो सवेरे ने ख्वाब के
कुछ चमकीले टुकड़े गिरह में लपेट के

तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.


कभी जो जाओ तुम उस बूढ़े मकान में
जो आज भी वृधाश्रम के बूढ़े की तरह 
अपने बच्चों की राह तक रहा होगा,
तो वो ख्वाब उन्ही गिरहों में लपेटे हुए
लेते आना और फिर एक बार मेरे 
सिरहाने रख देना, 
मेरा ताबूत जगमगा उठेगा.


--नीरज

ख्वाब




रात की बेहोशी में मैंने कुछ ख्वाब 
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो बेहोशी ने ख्वाब के 
चमकीले टुकड़े तकिये के सिरहाने 
रख छोड़े थे.

--नीरज