शुक्रवार, नवंबर 30, 2012

क्या तू मेरा और मैं तेरा - An honor killing

वो गलियाँ जो कभी हाथ पकड़ कर मेरा,
मुझ में समां जातीं थीं, कहतीं थीं मुझे
कि वो मेरी और मैं हूँ उनका।

आज लौटा हूँ शहर कई अरसे बाद जब,
हर गली, हर चौराहे, हर इमारत पे,
एक अजीब सा, बदरंगी, मटमैला सा 
नकाब चढ़ा है। 
क्या ये तू ही है जो कहता था कि 
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।

पहुंचा गली में अपनी मैं जब,
मूह कुछ इस कदर फेर लिया 
मानो कोई बदतमीज़, बेगैरत 
घुस आया है।
क्या ये तू ही है जो कहती थी कि 
तू मेरी और मैं हूँ तेरा

पहुंचा घर में अपने मैं जब,
अन्धयारी तब छाई थी , सन्नाटा वो ले आई थी,
आँगन में कुछ छींटे थे, दीवारों पे रेले थे,
क्या तू वो ही घर है जो कहता था कि 
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।

--नीरज

गुरुवार, नवंबर 15, 2012

घटा



घिर आए हो कुछ यूँही तुम,
पलकों पे बैठे तारे तुम,
घनघोर घटा की बदरी में 
मुझको जा खो आए तुम।

सीला सीला आँगन अब तक,
भीना भीना महक रहा था,
सूखी दहलीज़ के खातिर 
मुझको जा खो आए तुम।

ख़त के पुर्जे सालों जोड़े,
स्याह स्याही के हर मोती जोड़े,
सुनहरे अक्षर के खातिर 
मुझको जा खो आए तुम।

--नीरज

शनिवार, सितंबर 15, 2012

ज़िन्दगी




ज़िन्दगी तू दिखाती है न जाने कितने रूप,
कितने रूप तू इंसान से बदलवाती है.
कह जाती है कभी दास्ताँ पल में,
कभी सालों ठहर के दास्ताँ बनाती है.
रूठता है जो कोई कभी तुझसे,
पल में उसे हंसा मना भी लेती है.
साए लाख देती है ज़िन्दगी में,
उजाले से फिर तू मिटा भी देती है.

--नीरज

शनिवार, जून 16, 2012

आँखें मुंदीं हैं - कन्या भ्रूण हत्या - 3


बहते देखा है क्या तुमने मुझको?
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.
घुटते देखा है क्या तुमने मुझको? 
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.

गोदी में सोने की चाह थी मेरी, 
अम्बर को छूने की चाह थी मेरी.
छीना क्यूँ हक मेरा तुमने मुझसे,
काटा क्यों मुझको तुमने खुदसे.
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.

ऊँगली थामे चलने की चाह थी मेरी,
डोली में जाने की चाह थी मेरी,
छीना क्यूँ हक मेरा तुमने मुझसे,
लूटा क्यों सजने का ख्वाब ये मुझसे. 
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.

रोते देखा है क्या तुमने मुझको?
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.
सोते देखा है क्या तुमने मुझको?
माँ मेरी आँखें मुंदीं हैं.

--नीरज

बुधवार, मई 23, 2012

गुमनाम





कई ऐसे लोग हैं जिनकी वजह से हमारे देश को एक नई पहचान मिली पर.......एवज़ में उन्हें सिर्फ गुमनामी के काले साए मिले.......
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तरंग उठी फिर
भोर भई,
सप्तक नाच
मद-मस्त हुई.

कुछ चेह्के,
कुछ महके,
लगने लगे,
तबले पे ठेके.

कुछ नाम मिले,
गुमनाम मिले.
जो मिले कहीं,
वो खाख मिले.

स्याह रात खिली,
पहचान मिली,
सब भूल गए,
वो पहचान मिली.

लाचारी की गलिओं में,
बहरों की इस बस्ती में.
डूब गए अरमान सभी,
बिन पतवार की कश्ती में.

--नीरज

सोमवार, मई 14, 2012

सफहा

 

वक़्त ने अपनी कुछ गिरहें खोलीं हैं 
या कोई ख्वाब ओस बन के उभरा है.
फैली कुछ आढी-तिरछी लकीरें हैं
या कोई ख्वाब सफ्हे पे उभरा है.

--नीरज

शनिवार, मई 12, 2012

बादल



नीले आकाश के नीचे कुछ बादल अब बरसे हैं,
कच्चे घर की दीवारों पे कुछ रेले जा पसरे हैं.

सूरज जा अब चाँद उगा है, वो भी कुछ गीला-गीला है.
ताप रहा है आग भी लम्हा, वो भी कुछ सीला-सीला है.

- नीरज

शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

चौखट



झुर्रियों की चौखट पे आज भी
एक शाम तनहा बैठी है,
वो बस यूँही हर सुबह दरवाज़ा
खुलने की चाह लिए चली आती है.

रोज़ वो तनहा, बेरंग अपना सा मुंह
ले कर लौट जाती है, और सोचती है
कि किसी रोज़ वो इस ऊबड़-खाबड़,
बंजर धरती पे हल का मलहम लगाएगा
और ये बेज़ार पल में नम हो जाएगी.

अब और नहीं होता इंतज़ार उससे,
अकेलेपन के खप्पर भी अब कांपने लगे हैं.
टक-टकी लगाये वो कई सालों से यूँही बैठी है,
जाने कब दस्तक हो और शफ़क पे माँ शब्द बिखर जाए.

--नीरज