वो गलियाँ जो कभी हाथ पकड़ कर मेरा,
मुझ में समां जातीं थीं, कहतीं थीं मुझे
कि वो मेरी और मैं हूँ उनका।
आज लौटा हूँ शहर कई अरसे बाद जब,
हर गली, हर चौराहे, हर इमारत पे,
एक अजीब सा, बदरंगी, मटमैला सा
नकाब चढ़ा है।
क्या ये तू ही है जो कहता था कि
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।
पहुंचा गली में अपनी मैं जब,
मूह कुछ इस कदर फेर लिया
मानो कोई बदतमीज़, बेगैरत
घुस आया है।
क्या ये तू ही है जो कहती थी कि
तू मेरी और मैं हूँ तेरा।
पहुंचा घर में अपने मैं जब,
अन्धयारी तब छाई थी बस, सन्नाटा वो ले आई थी,
आँगन में कुछ छींटे थे, दीवारों पे रेले थे,
क्या तू वो ही घर है जो कहता था कि
तू मेरा और मैं हूँ तेरा।
--नीरज
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/12/2012-11.html
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना है नीरज जी....
जवाब देंहटाएंएहसासों की सहज और कोमल अभिव्यक्ति....
अनु
Bahut bahut shukriya Rashmi ji meri kritiyon ko itni sundar kritiyon ke saath shaamil karne ke liye. :)
जवाब देंहटाएंShukriya anu ji, accha laga jaankar ki aapko ye kriti pasand aayi. Aate rahiye :)
जवाब देंहटाएंक्या ये तू ही है
जो कहती थी कि -
"मैं तेरी हूं … और तू मेरा !!"
आह !
नीरज जी
एहसासात को झकझोरती हुई इस रचना ने दिल छू लिया है …
बहुत मार्मिक !
…आपकी लेखनी से श्रेष्ठ सुंदर भावप्रवण रचनाओं का सृजन ऐसे ही होता रहे …
शुभकामनाओं सहित…
Bahut bahut shukriya Rajendra ji jo ye rachna aapke dil ko chukar guzri aur shubhkaamnaon ke liye :)
जवाब देंहटाएंAate rahiye :)
सुन्दर भावपूर्ण रचना,,,
जवाब देंहटाएंthank you very much Reena ji :)
जवाब देंहटाएंthank you very much Reena ji :)
जवाब देंहटाएंsuperbbbbbbbbbb
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