सोमवार, दिसंबर 12, 2011

झुर्रियां

 

रात के चेहरे पे कुछ झुर्रियां उभर आई हैं, 
जाने खुद उकरी हैं या अँधेरे ने चाँद का नकाब छीन लिया है. 

ज़री की चादर से सितारे भी छिटक गए हैं, 
जाने वो खुद बेनूर हुई है या फंदा दर फंदा उधेडा गया है. 

 --नीरज

शनिवार, सितंबर 24, 2011

रात



पसर-पसर के चल रही है क्यों रात.
कितने करवट चल लिए,
न जाने कितने करवट बाकी हैं.

हर लम्हा टिक-टिक कर चाक की धुन पर गिरता है.
कितनी धुन हैं सुनलीं अब तक,
न जाने कितनी धुनें अभी बाकी हैं.

आढ़े-तिरछे रेले गीले हैं अब तक.
कितनी बूँदें बह गयीं,
न जाने कितनी अब भी बाकी हैं.

-- नीरज

बुधवार, अगस्त 03, 2011

ज़िन्दगी



मायने ज़िन्दगी के बदलने लगे हैं,
गुलशन में ख़ार अब लगने लगे हैं.

मुस्कुरा लेती थी ज़िन्दगी अक्सर यूँही,
उसे अब अमावस के साए डसने लगे हैं.

लाली शफ़क की जलाती है आसमां को,
स्याह रात के तारे उसे बुझाने लगे हैं.

वक़्त का चाक खाली घूमता रहा अब तक,
ज़िन्दगी को उसपे अब हम गड़ने लगे हैं.

बंजर ज़मीन पे आता न था कोई भी,
काली घटा के मेले अब लगने लगे हैं.

--नीरज

शनिवार, जून 18, 2011

ख़याल



वक़्त की मेज़ पे कुछ ख़याल अदबुने ही छूट गए थे.
जान पड़ता है की मेरी नींद की चाबी हाथ लग गयी है उनके,
रह रह कर उन्होंने मेरे ख़्वाबों में आना सीख लिया है.

कुछ तो बारिश के पतंगों की तरह बिन बुलाये चले आते हैं,
ऐसा मालूम होता है की कोई सैलानी आया, रुका.....और चला गया.
कुछ मोर बन कर आते हैं, निशानी के तौर पर पंख छोड़ जाते हैं.

तुम जो आओ अगली बार तो मोर बनकर आना
तुम्हे स्याही में भिगो के कागज़ पे उकेर लूँगा.

--नीरज

बुधवार, जनवरी 19, 2011

कुछ यूँही



इक रात तेरी उस शाख के ऊपर
कुछ ख्वाब मैंने जा रखे थे
कुछ फीका फीका स्वाद था उनका
पकने को मैंने रख छोड़े थे.

बारिश की बूंदों से वो कुछ
खारे खारे लगते हैं,
कांप रहे थे एक कोने में वो
तपने को बाहों में तेरी रख छोड़े है.

- नीरज