रविवार, मार्च 29, 2009

मेरा भारत महान

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?
बतादो मुझे वो कहाँ हैं, कहाँ हैं?

गरीबों के बच्चे वो भूखे वो नंगे,
एक बूँद दूध पे रोते-बिलखते वो बच्चे.
बिना बाप की पहचान के कई ऐसे बच्चे,
अमीरों की जूठन पे पलते वो बच्चे.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

ये देखो शरीफ जेब कतरों की दुनिया,
ये देखो रिश्वत खोरों की दुनिया.
पैदा होते ही बच्चा देता है रिश्वत,
गंगा के घाट पर भी होती है रिश्वत.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

गरीबों की बस्ती में प्रचंड है भूख की हस्ती,
किसान आज भी फसल की जगह बेचता है बच्ची.
चिडिया का निवाला लोग छीनते हैं अब भी,
यम् ही मिटाता है भूख-प्यास की हस्ती.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?

धर्म के नाम पे आज भी लोगों को भड़काया जाता है,
कुर्सी के खातिर आज भी मासूमों का रक्त बहाया जाता है.
आज भी दिल में मज़हब की दीवारें खड़ी करते हैं चंद लोग,
आज भी भाई चारे को ठेस पहुंचाने की कोशिश करते हैं चंद लोग.
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ हैं?
बतादो मुझे वो कहाँ हैं, कहाँ हैं?

--नीरज

सृष्टि


क्षितिज पे चढ़ता आता था, रवि ददकता जाता था,
सुबह की पावन किरणों के साथ गगन चमकता जाता था।
छोड़ घोंसले पंछी दाना चुगने भागे जाते थे,
घंटी बांधे सभी मवेशी गुबार उडाये जाते थे।
शीतल पवन वृक्षों को थपकी देती जाती थी,
नदिया जब पत्थर से टकराती थी तो किलकारी करती जाती थी।

सृष्टि है सप्तक जीवन का, जीवन तो बस वाणी है,
वाणी बिन सुर नीरस है, सुर बिन वाणी सूनी है।
जैसे जैसे धुआं बढ़ता जाता है,
सुर फीका पड़ता जाता है, वाणी भी थर्राती है,
हर रात ही अमावस की जान पड़ती है,
हर नई सुभे धुंधली पड़ती जाती है।

बहुत कशमकश के बाद किरण जगाती है हम सब को,
अब हवा के गरम थपेडे मिलते हैं सब वृक्षों को।
नदियाँ साड़ी सूख चुकीं हैं, नाले में बदल चुकीं हैं,
मवेशी सारे सूख चुके हैं, चिडियां साड़ी टपक चुकी हैं।

किरण सुबह जगाती है सबको, कब हम इस को जगायेंगे,
हटा धुएँ की छत्री को कब सुर-वाणी को मिलायेंगे?

--नीरज
04/06/2004

सोमवार, मार्च 23, 2009

चुनाव की तयारी

शोर मच रहा है, शहर सज रहा है,
कहीं हाथ, कहीं भगवा सज रहा है।

फिर आये हैं मेरे दर पे वादों की पर्ची लेकर,
पर बैठा हूँ इस बार में पिछले वादों की पर्ची लेकर।
बतला देता हूँ, नए वादों पे वोट न डालूँगा तुमको इस बार,
पूरे हुए पिछले वादों पे आन्कूंगा तुमको इस बार।

५ मिनट को गड्ढा खोदने या झाडू लगाने से वोट न मिलेगा,
जनता का जिसने काम किया उस पर ही बस मुकुट सजेगा।
संसद में सोने वालों को जुलाब की गोली मिलेगी,
वहां काम करने वाले को फिर ताज पोशी मिलेगी।

बीत गए दिन अब वो जब वोट खरीदे जाते थे,
जाती, धर्म, के नाम पे लोग भड़काए जाते थे,
तुम भी जाग जाओ ए सफ़ेद पोश,
जनता जाग गयी है, बीत गए दिन जब तुम धुल झोंक के जाते थे।

अन्धकार छंट चुका है, पौ फट चुकी है,
इस बार कोई घोटाला न करना,
क्योंकि सुबह हो चुकी है...

-- नीरज

रविवार, मार्च 22, 2009

चुनाव आ रहे हैं....

सालों साल लड़े जिस टुकड़े पर आज उसे बंजर किया,
रंगरलियाँ करने को पूरी रिश्वत का शंख-नाद किया।
वो लड़े मरे इस मात्रि भूमि पर, निछावर घर परिवार किया,
हमने सूक्ष्म उन्नति कर, बलिदान का उपहास किया,

चुनाव आने पर सड़कें आधी बनवाते हो,
और बाकी आधी अगले चुनाव आने पर बनवाते हो।
पांच साल में अपने घर भर लेते हो,
छटे साल से पांच गरीब गोद क्यों नहीं ले लेते हो?

कभी उन तंग गलिओं में बिफरती जिंदगियां देखना,
अपने बच्चों को मौत के हवाले करते मजबूर बाप से पूछना,
किस चिह्न पर मोहर लगायेगा उससे पूछना,
न हाथ न कमल दिखेगा उसको, रोटी तलाशती उसकी निगाहें देखना।

फिर चुनाव आ रहे हैं, तम्बू सज रहे हैं,
गरीबों के झोपडे में इस बार भी बम्बू सज रहे हैं।

- - नीरज

शनिवार, मार्च 21, 2009

कलयुग

आज रात एक अजीब सा द्रश्य देखा,
दो नंगे जिस्मों को आलिंगन कर बैठे देखा.

अमावस की रात तो नहीं थी न जाड़ा घनघोर था,
हजारों गाडियाँ रोशन थीं, धुएं से माहोल गर्म था.

आश्रम* की लाल बत्ती पे खडा था हरी होने के इंतज़ार में,
90 second बस यही सोचता रहा - ये नंगे जिस्म हैं किस फ़िराक में?

गरीबी के उन गर्म थपेडों में बारिश ने सिरहन भर दी,
नंगे जिस्म अब और लिपट गए, बारिश ने आँखें भर दीं.

10 second बचे थे कुल अब, accelerator की आवाज़ बढ़ी,
उन दो बच्चों की परछाई कुल दो फ़ुट तक बस और बढ़ी.

कलयुग में राम-लखन आज मैंने देखे,
लक्ष्मण को ठण्ड से बचाने को आतुर राम फुटपाथ पर देखे.

*आश्रम दिल्ली में एक जगह का नाम है

- - नीरज भार्गव