रविवार, मार्च 29, 2009
सृष्टि
क्षितिज पे चढ़ता आता था, रवि ददकता जाता था,
सुबह की पावन किरणों के साथ गगन चमकता जाता था।
छोड़ घोंसले पंछी दाना चुगने भागे जाते थे,
घंटी बांधे सभी मवेशी गुबार उडाये जाते थे।
शीतल पवन वृक्षों को थपकी देती जाती थी,
नदिया जब पत्थर से टकराती थी तो किलकारी करती जाती थी।
सृष्टि है सप्तक जीवन का, जीवन तो बस वाणी है,
वाणी बिन सुर नीरस है, सुर बिन वाणी सूनी है।
जैसे जैसे धुआं बढ़ता जाता है,
सुर फीका पड़ता जाता है, वाणी भी थर्राती है,
हर रात ही अमावस की जान पड़ती है,
हर नई सुभे धुंधली पड़ती जाती है।
बहुत कशमकश के बाद किरण जगाती है हम सब को,
अब हवा के गरम थपेडे मिलते हैं सब वृक्षों को।
नदियाँ साड़ी सूख चुकीं हैं, नाले में बदल चुकीं हैं,
मवेशी सारे सूख चुके हैं, चिडियां साड़ी टपक चुकी हैं।
किरण सुबह जगाती है सबको, कब हम इस को जगायेंगे,
हटा धुएँ की छत्री को कब सुर-वाणी को मिलायेंगे?
--नीरज
04/06/2004
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