रण में शहीद, वहां से सकुशल वापिस लौटे तथा आज भी हमारी रक्षा करते सभी सैनिकों को समर्पित -
मर मिटे हजारों लाल यहाँ पर
श्वेत बरफ तब लाल हुई.
वादी वादी गूंझी घन घन
शत्रु पे बौछार हुई.
चढ़े चोटी पर वीर हमारे
विजय तिरंगा फेहराया.
लहू के हर कतरे से अपने
दिया जय हिंद का हुंकारा.
जय हिंद
--नीरज
रविवार, जुलाई 26, 2009
शुक्रवार, जुलाई 17, 2009
निस्वार्थ
पेड़, नदी, पहाड़, झरने
बस यूँही विद्यमान हैं.
निस्वार्थ ही सब को
हर समय सुख देते हैं.
फ़र्ज़ अपने होने का बस
यूँही निभाते जाते हैं.
काश के इनको पूजने वाला
इंसान भी कभी इनको
समझ पाता और
एक दूसरे का मुश्किलों
में हाथ थाम पाता.
-- नीरज
बस यूँही विद्यमान हैं.
निस्वार्थ ही सब को
हर समय सुख देते हैं.
फ़र्ज़ अपने होने का बस
यूँही निभाते जाते हैं.
काश के इनको पूजने वाला
इंसान भी कभी इनको
समझ पाता और
एक दूसरे का मुश्किलों
में हाथ थाम पाता.
-- नीरज
बुधवार, जुलाई 15, 2009
मेरा देश - आज की नज़र से
हर प्रांत में मेरे देश की
ज़मीं गीली गीली सी लगती है.
मट मैली से कुछ सुर्ख रंग
लिए सी लगती है.
सोने की चिडिया न जाने
कहाँ लुप्त हो गयी है.
आपसी मतभेद से शायद
मुक्त हो गयी है.
सतरंगा इन्द्र धनुष अब
लाल दिखाई देता है.
बादल की हुंकार से ज्यादा
इंसानी शोर सुनाई देता है.
दो चूल्हों की आंच अब
हर घर से आती है.
रिश्तों की लकडी पे अब
रोटी सिक कर आती है.
भूख, प्यास सब त्याग के
मानस धरती पर लड़ता है.
इसकी ही कोख में एक दिन
सोने से डरता फिरता है.
--नीरज
ज़मीं गीली गीली सी लगती है.
मट मैली से कुछ सुर्ख रंग
लिए सी लगती है.
सोने की चिडिया न जाने
कहाँ लुप्त हो गयी है.
आपसी मतभेद से शायद
मुक्त हो गयी है.
सतरंगा इन्द्र धनुष अब
लाल दिखाई देता है.
बादल की हुंकार से ज्यादा
इंसानी शोर सुनाई देता है.
दो चूल्हों की आंच अब
हर घर से आती है.
रिश्तों की लकडी पे अब
रोटी सिक कर आती है.
भूख, प्यास सब त्याग के
मानस धरती पर लड़ता है.
इसकी ही कोख में एक दिन
सोने से डरता फिरता है.
--नीरज
मंगलवार, जुलाई 07, 2009
गरीब
यूँ तिरछी नज़रें क्यूँ कर देखते हो,
सरकार की नज़रों का नूर हूँ मैं.
कहने को आशियाना बनाते है घोसला तोड़ कर,
घोटाले में फंस, फिर घोंसले में बस जाता हूँ मैं.
चुनावों में सियासी नज़रों का नूर हूँ,
बाद में मनहूस नासूर बन जाता हूँ मैं.
इलाज, कहने को मुफ्त देता है हॉस्पिटल,
दवाईओं के दाम पे पस्त हो जाता हूँ मैं.
खाने को राशन भी सस्ता मिलता है हर महीने,
राशन के इन्तेज़ार में ध्वस्त हो जाता हूँ मैं.
पीड़ ये दिल की कई बहरों को सुना चुका,
सुनने वालों की आस में आज भी गाता हूँ मैं।
--नीरज
सरकार की नज़रों का नूर हूँ मैं.
कहने को आशियाना बनाते है घोसला तोड़ कर,
घोटाले में फंस, फिर घोंसले में बस जाता हूँ मैं.
चुनावों में सियासी नज़रों का नूर हूँ,
बाद में मनहूस नासूर बन जाता हूँ मैं.
इलाज, कहने को मुफ्त देता है हॉस्पिटल,
दवाईओं के दाम पे पस्त हो जाता हूँ मैं.
खाने को राशन भी सस्ता मिलता है हर महीने,
राशन के इन्तेज़ार में ध्वस्त हो जाता हूँ मैं.
पीड़ ये दिल की कई बहरों को सुना चुका,
सुनने वालों की आस में आज भी गाता हूँ मैं।
--नीरज
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