शुक्रवार, नवंबर 17, 2017

सन्नाटा



ज़िंदगी बस यूँही धुआं हो गयी,
शोलों की आग न जाने कब ठंडी हो गयी.

साहिलों पे पड़े थक गए पत्थर,
लेहेर न जाने कब परायी हो गयी. 

रिस्ता रहा हर ख्वाब पल दर पल,
सफ़ेद किताब न जाने कब काली हो गयी. 

कभी न बुद-बूदाया नाम तेरा मैंने,
खुदा तेरी न जाने कब खुदाई हो गयी. 

मिलते जो थे राहगीर अक्सर तुझे 'नीर'
राहों से उनकी न जाने कब जुदाई हो गयी. 

--नीर

शनिवार, अगस्त 12, 2017

मुक्कमल ख़्वाब


आज दराज़ में जब कुछ लम्हे टटोले,
तो हाथ मेरे कुछ पुर्ज़े लगे.
कुछ ख़्वाब का चश्मा चढ़ाये,
तो कुछ हकीकत से भरे साथ खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो रंगीन थे,
हकीकत के दो रंग में संगीन थे,
एक को हसरत थी कायम होने की,
दूसरे खामोशी से बस मुस्कुराए खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो किस्मत को कोस रहे थे,
और दो रंगी, किस्मत का हाथ थामे खड़े थे.
हाथ बढ़ाया है आज ख़्वाबों की तरफ उन्होंने ,
मुक्कमल हों अब वो शायद जो न जाने कब से
हकीकत से महरूम एक कोने में पड़े थे.

--नीर 

सोमवार, जून 26, 2017

पहेली


अमावास की रात है कैसी,
न उगती है न ढलती है.

सिहरन देह में है कैसी, न
सिकुड़ती है न ठिठुरती है.

भंवर में कश्ती है ये कैसी,
ने उभरती है न डूबती है.

पहेली है ये ज़िन्दगी कैसी,
न थमती है न चलती है.

--नीर

रविवार, जून 25, 2017

सपनों का शहर


ये जंग्लों में सिमटी खिड़कियाँ ,
ये बिन balcony के आशियाँ.
आसमान चूमती इमारतें और,
बेसुध भागती ज़िंदगियाँ।

सड़क पे, फुटपाथ पे,
भागता ये इंसानी रेला है.
भीतर के शोर को मुँह में दबाये,
ये बस एक जिस्मानी मेला है.

टूटी सड़कों पे, जलाशय बने गड्ढों पे
दौड़ता, ये हाड़-माँस का ठेला है.
छाते से ढाँपता, rain coat से बचाता,
दिल फिर भी मेरे यार तेरा गीला है.

5 बजे cooker की सीटी,
मेरी सुबह का रोज़ alarm है.
Local में पिस्ती रोज़ ज़िन्दगी,
मेरा बस यही समागम है.

--नीर

शुक्रवार, अप्रैल 21, 2017

बेपरवाह


वो यूंही बस छूके चली जाती है,
बालों को सहला कर, चुपके से गुज़र जाती है।
क्या थामूँ हाथ अब उस बेपरवाह का,
हवा ही तो है, बस सेहला के गुज़र जाती है।
- नीर