रविवार, जून 25, 2017

सपनों का शहर


ये जंग्लों में सिमटी खिड़कियाँ ,
ये बिन balcony के आशियाँ.
आसमान चूमती इमारतें और,
बेसुध भागती ज़िंदगियाँ।

सड़क पे, फुटपाथ पे,
भागता ये इंसानी रेला है.
भीतर के शोर को मुँह में दबाये,
ये बस एक जिस्मानी मेला है.

टूटी सड़कों पे, जलाशय बने गड्ढों पे
दौड़ता, ये हाड़-माँस का ठेला है.
छाते से ढाँपता, rain coat से बचाता,
दिल फिर भी मेरे यार तेरा गीला है.

5 बजे cooker की सीटी,
मेरी सुबह का रोज़ alarm है.
Local में पिस्ती रोज़ ज़िन्दगी,
मेरा बस यही समागम है.

--नीर

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