शनिवार, फ़रवरी 27, 2010
ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा
ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?
उलझी हुई कई रातें तू यूँही सुलझा देती है.
उगते सपने कई तू हकीकत में ले आती है,
आसमान से तोड़ देती है सितारे अनगिनत ,
तोड़ के तू मेरी झोली में जड़ने चली आती है.
ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?
प्यार की पवन से मेरी जुल्फें सहलाती है.
रात भर उंघती आँखों में नींद दे जाती है,
देखा नहीं तुझे तोड़ते गुलशन से फूल कोई,
काँटों के सेज को भी पल में फूल बना देती है .
तु ही रुलाती है कभी, तू ही हंसा देती है.
ए ज़िन्दगी मैं कैसे करूँ अदा शुक्रिया तेरा?
--नीरज
मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010
हुंकार
दायरे ऐसे भी बनते हैं कि फिर मिटते नहीं,
लुट जाती हैं हस्तियाँ, कारवां मिटते नहीं.
जितना चाहे रौन्दलो या चाहे कितना तोड़लो,
हौसले फौलादों के आग से जलते नहीं.
रात के हों घुप्प अँधेरे या कई साये घनेरे,
रौशनी की इक किरण के सामने डटते नहीं.
चाहे मीलों हो गगन या कहीं क्षितिज मिलन,
छूने के मंसूबे अपने साँझ संग ढलते नहीं.
शीश उठते हैं गर्व से या जंग में कटते हैं गर्व से,
आजाते हैं जो हम राह में तो मौत से डरते नहीं.
बांधलो चाहे कहीं भी या कहीं भी रोकलो,
"नीर" के भीषण थपेड़े रोकने से रुकते नहीं.
--नीरज
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