शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

चौखट



झुर्रियों की चौखट पे आज भी
एक शाम तनहा बैठी है,
वो बस यूँही हर सुबह दरवाज़ा
खुलने की चाह लिए चली आती है.

रोज़ वो तनहा, बेरंग अपना सा मुंह
ले कर लौट जाती है, और सोचती है
कि किसी रोज़ वो इस ऊबड़-खाबड़,
बंजर धरती पे हल का मलहम लगाएगा
और ये बेज़ार पल में नम हो जाएगी.

अब और नहीं होता इंतज़ार उससे,
अकेलेपन के खप्पर भी अब कांपने लगे हैं.
टक-टकी लगाये वो कई सालों से यूँही बैठी है,
जाने कब दस्तक हो और शफ़क पे माँ शब्द बिखर जाए.

--नीरज