झुर्रियों की चौखट पे आज भी
एक शाम तनहा बैठी है,
वो बस यूँही हर सुबह दरवाज़ा
खुलने की चाह लिए चली आती है.
रोज़ वो तनहा, बेरंग अपना सा मुंह
ले कर लौट जाती है, और सोचती है
कि किसी रोज़ वो इस ऊबड़-खाबड़,
बंजर धरती पे हल का मलहम लगाएगा
और ये बेज़ार पल में नम हो जाएगी.
अब और नहीं होता इंतज़ार उससे,
अकेलेपन के खप्पर भी अब कांपने लगे हैं.
टक-टकी लगाये वो कई सालों से यूँही बैठी है,
जाने कब दस्तक हो और शफ़क पे माँ शब्द बिखर जाए.
--नीरज
कुछ उदासी लिए है ... अंतर्मन को छूती हुयी है आज की रचना ...
जवाब देंहटाएंgahan bhav darshati rachana...
जवाब देंहटाएं@Sanjay ji - Accha laga ki ye aapke antarman ko choo kar guzri. Bahut bahut shukriya :)
जवाब देंहटाएं@Reena ji - Bahut bahut shukriya :)
जवाब देंहटाएंDil ko chhu lene wali kavita
जवाब देंहटाएं