कुछ पन्ने मेरी दराज़ से....
बुधवार, जनवरी 19, 2011
कुछ यूँही
इक रात तेरी उस शाख के ऊपर
कुछ ख्वाब मैंने जा रखे थे
कुछ फीका फीका स्वाद था उनका
पकने को मैंने रख छोड़े थे.
बारिश की बूंदों से वो कुछ
खारे खारे लगते हैं,
कांप रहे थे एक कोने में वो
तपने को बाहों में तेरी रख छोड़े है.
- नीरज
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