शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

फौजी

दो देश लड़ रहे हैं,
सफ़ेद पोश सियासत खेल रहे हैं.
हम सरहद पे भूखे प्यासे,
द्रौपदी की साडी बुन रहे हैं.

दन-दन, घन-घन की आवाज़ बड़ी है,
दोनों तरफ लाशों की आबादी बड़ी है.
दिवाली इस बार लगता है थोडी लम्बी हो गयी,
*होली के इंतज़ार में सरहद पे ये टुकडी खडी है.

हर जोर लगा देंगे तुझे माँ हम बचा लेंगे,
आन बचाने को तेरी हम जां लुटा देंगे.
देश भक्ति का बीज लगा कर लहू से सींचेंगे,
लहू से सींचेंगे उसे माँ फ़सल बना देंगे.

विजय को स्वप्निल अबकी हम न होने देंगे,
जा चोटी पे ध्वज अपना ये फेहरा देंगे.
नहीं उठेंगी फिर नज़रें तुझ पर अब वो,
अबकी हम उनको ऐसा सबक सिखला देंगे.

बहुत सिखाया प्यार मगर क्या पाया हमने?
घुस आये भीतर घर में क्या पाया हमने?
दुसाहस मत करना हम प्रहरी जाग रहे,
दुसाहस पे तुमको हम ललकार रहे.

*(होली - लाल रंग यानी की शहीद भी होना पड़ा तो उसके लिए तैयार है फौजी)

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

सरफरोशी की तमन्ना



सरफरोशी की तमन्ना क्या अब हमारे दिल में है?
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-कातिल में है.

जलियांवाला खूँ तो बिस्मिल देख कब का धुल गया,
खूँ का रेला बहता अब तो मज़हबी इस दिल में है.

ट्रेन लूटने का ज़माना अब तो बिस्मिल लद गया,
अस्मतों की धज्जियाँ उडती यहाँ अब खुल के हैं.

इंसानियत पे लड़ने वाले अब तो बिस्मिल मर गए,
गोदरा-अयोध्या के मंज़र जलते यहाँ अब दिल में हैं.

गाँधी का तो कारवां कब का देखो लुट गया,
वोट का ही कारवां चलता सियासी दिल में है.

एक भारत का वो सपना भी तो देखो मिट गया,
आरक्षण की अब तो भट्टी जलती युवा के दिल में है.

सरफरोशी की तमन्ना अब तो बिस्मिल बुझ गयी,
बस अपने मतलब की मसरूफियत कलयुगी इस दिल में है.

-- नीरज

नोट:-ऊपर की दो पंक्तियाँ तो आप सभी लोग पहचानते ही होंगे, बिस्मिल साहब की हैं. बस मैंने बीच में "क्या" जोड़ दिया है.माफ़ी चाहूँगा अगर इस रचना से किसी के दिल को आघात हो तो.

आबरू

कुछ मनचली साँसों ने
कली की खुशबू छीनली।
हैवानियत ज़ोरों पे थी
रूह लुट गयी उस रोज़

जिस चाँद की कसमें खायीं
वो बस तकता रहा.
सितारे खिल खिलाते रहे
जहान लुटता रहा उस रोज़

चीखती, छट-पटाती जोर से
रहम मांगती रही.
चिन्दियाँ उड़ती रहीं
जिस्म खाख़ होता रहा उस रोज़


उठी...गिरी...कुछ घिसती
खड़ी हुई....फिर चली.
तन ढांप कर रूह खड़ी थी
शहर के चौराहे पे उस रोज़
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हजारों यूँही रोज़ लड़तीं हैं,
गिरतीं हैं और उठतीं हैं
अस्मत की खातिर.
कोई इन हैवानों को जा बता आये
बहने और माँ तुम्हारी भी हैं,
आबरू और रूह उनकी भी है,
सुना है...तुम्हारे मौहल्ले में चौराहे भी है....

-- नीरज

नीर हूँ मैं नीर हूँ

आज की मैं पीड हूँ,
रहता बिन नीड़ हूँ,
बहारों की जननी मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

सूखता नदी से आज
रोड पे पड़ा मैं आज
प्यासों की गुहार मैं
नीर
हूँ मैं नीर हूँ

आज में हूँ कल में भी
चक्षुओं के तल में भी
आत्मा की तृप्ति मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

रोकलो बचा लो तुम
व्यर्थ न बहाओ तुम
ज़िन्दगी की कुंजी मैं
नीर हूँ मैं नीर हूँ

--नीर

शनिवार, अप्रैल 18, 2009

हिन्दी

अंग्रेजी देखि सूट-बूट में
हिन्दी भर्ती पानी
जो बोले अंग्रेजी में
वो ही होता ग्यानी।

A B C सब ने हैं जाने
बिरले ही जाने वर्ण माला।
सब जानें Tense & Pronoun
कितने जपते काल व सर्वनाम की माला?

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 16, 2009

किस्मत की लकीरें

आज 'प्रिया'* पर एक पंडित देखा,
एक आदमी का हाथ लिए बैठा था.
न जाने क्या ढूंढ रहा था उस में,
माथे की लकीरें सिकोड हुए बैठा था.

कुछ देर बाद उसके होंठ हिलने लगे,
उसकी सिकुडन कम होने लगीं.
जजमान सुनता रहा,
उसके माथे की सिकुडन बढ़ने लगीं.

तभी वहां से एक अफसर गुज़रा
सूट उसका काँधे से ढीला था।
सिहर गया जब पाया
वो व्यक्ति तो लूला था।

निगाह कभी अफसर पर,
कभी जजमान पर होती।
ज़हन में कोलाहल मचा था।
वाद-विवाद का मंच सजा था...

क्या वाकई इंसान की किस्मत,
हाथों की लकीरों में होती है?
क्या उनकी किस्मत नहीं होती,
जिनकी लकीरों में हाथ नहीं होते हैं?

-नीरज

*प्रिया एक सिनेमा हॉल है वसंत विहार, नई दिल्ली में.

बुधवार, अप्रैल 15, 2009

गठबंधन

ख्वाबों ही ख्वाबों में आज एक ख्वाब देखा,
हकीक़त सा लगा जब उसे छूके देखा.
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दुल्हन बनी थी, सजी खड़ी थी
बहुत लोग इर्द गिर्द थे उसके.
हर्ष था उलास था सब के ललाट पे
पर शिकन न थी चेहरे पे उसके.

न मंडप था न पंडित
कुछ अटपटा सा नज़ारा था.
ढोल नगाडे सब ओर बज रहे थे
नाचता जहान हमारा था.

हकीकत देखि तो सिहर उठा
ख्वाब उसी पल खाख हुआ.
झूठे सच्चे वादों में
फिर नारी का नाश हुआ.

ये तो मात्र भूमि थी अपनी
इसका ये क्या हाल हुआ।
फिर पांचाली बन बैठी,
देश फिर गठबंधन का शिकार हुआ।

न जाने कौन कौरव कौन पांडव
अब तू न बचने पाएगी।
एक ओर दासी बन जायेगी,
तो दूजी ओर फिर जुए में हारी जायेगी.....

--नीरज

शुक्रवार, अप्रैल 10, 2009

बुढापा



आज मेरे मुन्ना का जन्मदिन है,
32 का हो 33 में लग गया मेरा मुन्ना.

आज भी वो दिन नहीं भूला जब अस्पताल से लाया था,
बीवी की आहुति देकर मुन्ना घर ले आया था.
माँ भी मैं था और बाप भी मैं,
माँ का आँचल कभी खलने नहीं दिया था.

घर में जो भी चीज़ आती थी,
वो उसकी पसंद की ही आती थी.
मुझे क्या पता था एक रोज़ ये आदत बन जायेगी,
मेरी बहु भी किसी दिन बस यूँही आ जायेगी.

कल तक हम लोग साथ रहते थे,
आज वो अपने बेडरूम में और
मैं अपने बेडरूम में रहता हूँ.
कल तक मुन्ना मेरे साथ रहता था,
आज मैं मुन्ने के साथ रहता हूँ.

कल तक मेरी खांसी खलती न थी,
आज वो उसको disturb करती है.
कल तक मैं खुलके जीता था,
आज उसी घर में डरा-डरा सा रहता हूँ.

न जाने आज की नस्ल को क्या हुआ है,
अपनी ही फसल खरपतवार नज़र आती है.
फसल काट घर ले जाते हैं,
खरपतवार खेत में डली नज़र आती है.

--नीरज

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

कन्या भ्रूण हत्या - 2



घनघोर अँधेरा था,
मौसम पर जेठ का डेरा था.
सड़कें सुनसान थीं,
पर कहीं चट-पट का डेरा था.

रात के 10 बज चले थे,
सारे कुत्ते सो चुके थे.
बस डॉ. साहब जागे हुए थे,
किसी काम में बीदे हुए थे.

एक पहर और बीत गया था,
आवाज़ का यका यक विस्तार हुआ.
Pulsar पर दो आकृतियाँ सवार हुईं,
उफ्फ्फ...आज फिर कोई इसका शिकार हुआ.

सुबह माता जी ने बतलाया,
आज फिर एक भ्रूण पाया गया है.
सरोवर को एक और,
बच्ची के भ्रूण का भोग लगाया गया है.

अब बस करो ये नरसंहार,
आज की बेटी बेटों से आगे है.
उसका चंदा मामा अब कहानियों में नहीं,
वो तो खुद उनसे मिलके आती है.

हर माँ बाप की लावण्या है,
हर माँ बाप की कीर्ति है.
मान है वो सम्मान है वो,
हम सब की जननी है वो.

--नीरज

दहेज़ प्रथा

आज ही के दिन साल भर पहले,
घर में शेहनाईयां गूंझ रहीं थीं.
खुशियों का पड़ाव था घर में,
चेहरों पे सब के मुस्कान फूट रही थी.

होती भी क्यों ना,
एक लौती बिटिया की शादी जो थी.
नाज़ से जिस को हथेली पे पाला था,
उसकी घर से विदाई जो थी.

विदाई हुई,
माँ की देहलीज़ अब पराई हुई,
बचपन उस घर में छोड़ चली,
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई.

एक महीने में ही,
खुशियाँ फाकता हो गयीं.
"इनके" दहेज़ के लालच में,
मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ही भारी हो गयी.

बहुत समझाया पर ये एक न माने,
कभी माँ-बाप के नाम पे तो,
कभी सुहाग के नाम पे,
मुझे ही उल्टा धमकाते रहे.
वक़्त गुज़रता रहा, सिलसिला चलता रहा,
हर दिन यूँही प्रताडित करते रहे.

काश के माँ-बाप ने लड़ना सिखाया होता,
कुछ दिन और रुक कर,
अपने पैरों पे चलना सिखाया होता.
पराया धन न समझा होता,
बोझ समझ के न उतारा होता.

कब तक यूँही खामोशी से पिसेंगे?
कब तक यूँही ससुराल में जलेंगे?
सवाल है तुम लड़कों के दलालों से,
हम कब तक इस ज्वलन प्रथा की आग में जलेंगे?

अब पंखा ही मेरी नियति बन गया,
एक और दहेज़ प्रताडित बहु पे हार चढ़ गया....

--नीरज

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

मौत.....

मौत.....
एक अनसहा अहसास, एक खौफ, एक सच, एक अकस्मात क्रिया
ऐसे कई शब्द समाये हुए है ये शब्द.......मौत

चुपके से, आहिस्ता से सब कुछ शांत कर जाती है,
इंसान को बेबस कर उसकी हद पार कर जाती है तू।

साथ में अपने एक को ले जाती है,
पीछे कईओं को तड़पता छोड़ जाती है तू।

सब जानते हैं नसीब में है सब के तू,
फिर न जाने क्यों सब के दिल का खौफ बन जाती है तू।

मौत.....
एक क्षण, एक रहस्य, एक कल्पना,
इसे कोई समझ पाया है तो वो है सिर्फ और सिर्फ......मौत

--नीरज

सोमवार, अप्रैल 06, 2009

नारी

9 दिन व्रत के बीत गए,
कन्या जिमा के व्रत खुल गए.
न जाने कहाँ से संस्कारों की याद आई
एक बाप की काली करतूत से भरे अखबार के पन्ने खुल गए।

संस्कार सिखाने वाला बाप बेटी को नोच रहा था
रक्षा करने वाला भाई बहन को टोंच रहा था।
कई साल से पत्थर की मूर्ती को पूज रहा था,
पर घर की ही देवी को लूट रहा था।

क्या येही हमारी संस्कृति है?
आस्था ही है या ढौंग है?
कई सवाल ऐसे ही मस्तिष्क मेंमेरे दौड़ रहे हैं।

कहीं दहेज़, कहीं लड़के, कहीं बाँझपन के लिए
नारी को छोडा जाता है।
कहीं देवी बना के पूजा जाता है,
कहीं चुडैल बता के मारा जाता है।

पत्थर की मूरत को पूजने से पहले,
गृह-लक्ष्मी को क्यों नहीं पूजा जाता?
इस अँधेरी संस्कृति का मूँह सूरज
की ओर क्यों नहीं मोडा जाता?

--नीरज

एक संस्कृत श्लोक बचपन में पढ़ा था -

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवताः
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते, तत्र न रमन्ते देवताः

अर्थात -

जहाँ नारी की पूजा होती है वहीँ पर देवों का वास होता हैऔर जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती वहां देवों का वास नहीं होता.