आज 'प्रिया'* पर एक पंडित देखा,
एक आदमी का हाथ लिए बैठा था.
न जाने क्या ढूंढ रहा था उस में,
माथे की लकीरें सिकोड हुए बैठा था.
कुछ देर बाद उसके होंठ हिलने लगे,
उसकी सिकुडन कम होने लगीं.
जजमान सुनता रहा,
उसके माथे की सिकुडन बढ़ने लगीं.
तभी वहां से एक अफसर गुज़रा
सूट उसका काँधे से ढीला था।
सिहर गया जब पाया
वो व्यक्ति तो लूला था।
निगाह कभी अफसर पर,
कभी जजमान पर होती।
ज़हन में कोलाहल मचा था।
वाद-विवाद का मंच सजा था...
क्या वाकई इंसान की किस्मत,
हाथों की लकीरों में होती है?
क्या उनकी किस्मत नहीं होती,
जिनकी लकीरों में हाथ नहीं होते हैं?
-नीरज
*प्रिया एक सिनेमा हॉल है वसंत विहार, नई दिल्ली में.
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