गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

दहेज़ प्रथा

आज ही के दिन साल भर पहले,
घर में शेहनाईयां गूंझ रहीं थीं.
खुशियों का पड़ाव था घर में,
चेहरों पे सब के मुस्कान फूट रही थी.

होती भी क्यों ना,
एक लौती बिटिया की शादी जो थी.
नाज़ से जिस को हथेली पे पाला था,
उसकी घर से विदाई जो थी.

विदाई हुई,
माँ की देहलीज़ अब पराई हुई,
बचपन उस घर में छोड़ चली,
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई.

एक महीने में ही,
खुशियाँ फाकता हो गयीं.
"इनके" दहेज़ के लालच में,
मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ही भारी हो गयी.

बहुत समझाया पर ये एक न माने,
कभी माँ-बाप के नाम पे तो,
कभी सुहाग के नाम पे,
मुझे ही उल्टा धमकाते रहे.
वक़्त गुज़रता रहा, सिलसिला चलता रहा,
हर दिन यूँही प्रताडित करते रहे.

काश के माँ-बाप ने लड़ना सिखाया होता,
कुछ दिन और रुक कर,
अपने पैरों पे चलना सिखाया होता.
पराया धन न समझा होता,
बोझ समझ के न उतारा होता.

कब तक यूँही खामोशी से पिसेंगे?
कब तक यूँही ससुराल में जलेंगे?
सवाल है तुम लड़कों के दलालों से,
हम कब तक इस ज्वलन प्रथा की आग में जलेंगे?

अब पंखा ही मेरी नियति बन गया,
एक और दहेज़ प्रताडित बहु पे हार चढ़ गया....

--नीरज

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.