रविवार, मई 08, 2022

बेड़ी



बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।
पंखों को खुद ही मैंने,
बांध किनारे रखा है।
कमरा है ताबूत के जैसा,
घुप अंधेरा, सन्नाटा है।
बैठ गया अब आके इसमें,
चाबी कहीं फेंक आया हूं।
बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।

हर सहर-सहर मैं, सिहर-सिहर के,
हक्का-बक्का जागा हूं।
सन्नाटे के शोर में खुद को
जाने कहां खो आया हूं।
आशाओं की चादर है पर,
किसी और को उड़ा आया हूं।
बेड़ी पैर में डाली है,
मैं उड़ कहीं न पाया हूं।

-- नीर

रविवार, अप्रैल 10, 2022

भीड़ कभी मुझे खींच न पाई

भीड़ कभी मुझे खींच न पाई,

और अकेलापन कभी छोड़ न पाया।

मेरा हमनफस सदा मैं ही रहा,

मेरा हमनवा कोई कभी बन न पाया।


जाम तो बहुत भरे साकी ने यूं तो,

हलक के नीचे कभी उडेल न पाया,

मैं को में में झोंकता रहा,

मैकशी में से निभा न पाया।


--नीर

मंगलवार, अक्तूबर 20, 2020

मेरा घर बिक रहा है


 खिड़की, दरवाजे, ताले कुण्डी,

हर कमरा, हर दीवार, 

हर दीवार पे लगी पुताई की परत,

सब की बोली लगाई गई है साहब,

जो नोच सको वो नोचलो,

जो खरोंच सको वो खरोंच लो।

सरे बाज़ार खड़ा है आज मेरा घर,

क्योंकि मेरा घर बिक रहा है।


रात-रात, जाग-जाग, पिघल-पिघल,

कभी ठिठुर-ठिठुर,

बचा-बचा, कभी दबा के भूख,

जोड़ा था एक-एक फर्नीचर मैंने,

जोड़े थे मैंने चम्मच कटोरी।

वो खींच-खींच जो रखते हैं,

वो पटक-पटक जो देते हैं।

वो क्या जानें कि कितनी जागी

रातें दे पटकी हैं।

वो क्या जानें कि कितनी सांसें

ज़मीन पे आ छिटकी हैं।

उनका क्या जाता है साहब,

ये तो मेरा घर बिक रहा है।


तमाशगीन सा मेरा परिवार

खड़ा है एक कोने में,

तमशगीन सा मेरा मोहल्ला

खड़ा है गली के नुक्कड़ पे।

न जाने किस काले चश्मे में

छुपाए आंखें अपनी,

बोली लगते देख रहा है।

तुम सब भी ठेले जाओगे,

हवा में उछाले जाओगे।

फर्क नहीं तुम्हें अभी कुछ पड़ रहा है,

क्योंकि अभी तो बस मेरा घर बिक रहा है।


-- नीरज

बुधवार, सितंबर 11, 2019

365 days valentine



आज कुछ बीती गलिओं से गुज़री,
तो आँखें कुछ नम सी हो गयीं।
हवाएँ जो बस यूँहीं बह रही थीं,
एक नज़्म सी हो गयीं। 

10 KM पैदल घर आते थे,
किराया बचा कर मेरे लिए जलेबी जो लाते थे तुम।
अदृश्य तोंद को पिचकाने का कह कर,
मुझे दिन-दहाड़े बरगलाते थे तुम। 

कैसे भूलूँ वो दिवाली की रातें,
कांख से कई बार सिली कमीज़ को भी नया बता जाते थे,
हज़ारों में भी चमकूं, तो नई साड़ी ले आते थे तुम। 

वो सुनहरी चप्पलें याद हैं?
जो मेरे जन्मदिन पे तुम ने दिलायीं थी?
मुझे क्या मालूम नहीं,
तुमने उनकी कीमत अपने तलवों के छालों से चुकाई थी.

तुम्हे क्या लगता रहा ता-उम्र की मुझे इल्म नहीं?
इल्म था, कि सदा तुम्हारी खुशी मेरी और मेरी तुम्हारी रही। 
तब तो बस हर पल हम दोनों को अपना साथ था,
अब पता चला की वो तो अपना 365 days valentine था। 

--नीर 

सोमवार, फ़रवरी 12, 2018

अकेलापन


कभी कभी  कितना अकेलापन हो जाता है,
खुद ही बोलता है और खुद को सुनता है।
दिल रोज़ की तरह खुद धड़कता है,
और खुद की धड़कन आप सुनता है।
कभी कभी  कितना अकेलापन हो जाता है।

आईने के सामने खड़ा खुद को निहारता है,
अपनी ही मुस्कान से मुस्करा कर मिलता है।
बाएँ हाथ से दाएँ को थाम लेता है,
मुश्किलों में खुद को हिम्मत दिलाता है।
कभी कभी  कितना अकेलापन हो जाता है।

कभी जब आँख से आँसू बह जाता है,
पलकों से पौंछ के ढांढस बंधाता है।
कभी कभी  कितना अकेलापन हो जाता है,
-- नीर

शुक्रवार, नवंबर 17, 2017

सन्नाटा



ज़िंदगी बस यूँही धुआं हो गयी,
शोलों की आग न जाने कब ठंडी हो गयी.

साहिलों पे पड़े थक गए पत्थर,
लेहेर न जाने कब परायी हो गयी. 

रिस्ता रहा हर ख्वाब पल दर पल,
सफ़ेद किताब न जाने कब काली हो गयी. 

कभी न बुद-बूदाया नाम तेरा मैंने,
खुदा तेरी न जाने कब खुदाई हो गयी. 

मिलते जो थे राहगीर अक्सर तुझे 'नीर'
राहों से उनकी न जाने कब जुदाई हो गयी. 

--नीर

शनिवार, अगस्त 12, 2017

मुक्कमल ख़्वाब


आज दराज़ में जब कुछ लम्हे टटोले,
तो हाथ मेरे कुछ पुर्ज़े लगे.
कुछ ख़्वाब का चश्मा चढ़ाये,
तो कुछ हकीकत से भरे साथ खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो रंगीन थे,
हकीकत के दो रंग में संगीन थे,
एक को हसरत थी कायम होने की,
दूसरे खामोशी से बस मुस्कुराए खड़े थे.

जो चश्मे में थे वो किस्मत को कोस रहे थे,
और दो रंगी, किस्मत का हाथ थामे खड़े थे.
हाथ बढ़ाया है आज ख़्वाबों की तरफ उन्होंने ,
मुक्कमल हों अब वो शायद जो न जाने कब से
हकीकत से महरूम एक कोने में पड़े थे.

--नीर 

सोमवार, जून 26, 2017

पहेली


अमावास की रात है कैसी,
न उगती है न ढलती है.

सिहरन देह में है कैसी, न
सिकुड़ती है न ठिठुरती है.

भंवर में कश्ती है ये कैसी,
ने उभरती है न डूबती है.

पहेली है ये ज़िन्दगी कैसी,
न थमती है न चलती है.

--नीर

रविवार, जून 25, 2017

सपनों का शहर


ये जंग्लों में सिमटी खिड़कियाँ ,
ये बिन balcony के आशियाँ.
आसमान चूमती इमारतें और,
बेसुध भागती ज़िंदगियाँ।

सड़क पे, फुटपाथ पे,
भागता ये इंसानी रेला है.
भीतर के शोर को मुँह में दबाये,
ये बस एक जिस्मानी मेला है.

टूटी सड़कों पे, जलाशय बने गड्ढों पे
दौड़ता, ये हाड़-माँस का ठेला है.
छाते से ढाँपता, rain coat से बचाता,
दिल फिर भी मेरे यार तेरा गीला है.

5 बजे cooker की सीटी,
मेरी सुबह का रोज़ alarm है.
Local में पिस्ती रोज़ ज़िन्दगी,
मेरा बस यही समागम है.

--नीर

शुक्रवार, अप्रैल 21, 2017

बेपरवाह


वो यूंही बस छूके चली जाती है,
बालों को सहला कर, चुपके से गुज़र जाती है।
क्या थामूँ हाथ अब उस बेपरवाह का,
हवा ही तो है, बस सेहला के गुज़र जाती है।
- नीर