ये कविता समर्पित है मेरे स्वर्गीय दादाजी एवं दादीजी को जिन्हों ने ये घर बनाया था और मैंने और मेरे भाइयों ने कई गर्मियों की छुट्टियाँ उनके साथ यहाँ पर बितायीं.
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पौ फटा करती थी फ़िर एक नई सुबह हुआ करती थी,
श्वेत किरणों, बैलों की घंटी से फ़िर एक उज्वल दिन की शुरुआत हुआ करती थी !
खाट पे सोया करते थे, कम्बल को ओड़ा करते थे,
जाड़ा सुबहे बहुत सताता था, तब चाय का प्याला याद आता था !
कुँए पे नहाया करते थे, इमली पे खेला करते थे,
ज्यों-ज्यों दिन ढलता जाता था, कृष्ण धवल को ग्रस्ता था !
संध्या प्रभात का मंज़र फ़िर दोहराती थी,
घंटियों का स्वर, धूल का गुबार वो घर फ़िर महका देती थी !
वो घर था मिट्टी का, छप्पर की थी छत....!
पर अब ये मंज़र बस एक सपना है, वो घर अब न अपना है,
वीरान पड़ा है वो घर अब भी, उस घर में अब शाम ढली है !
लौटा नहीं है कोई मवेशी, घंटी का स्वर वीरान पड़ा है !
लीपा करतीं थीं दादी जिसको, तीन कमरे और एक रसोई थी जिस में,
अब आधी दीवारें खड़ी हुईं हैं, आँगन भी वीरान पड़ा है !
पौ फटती नहीं है, रात जाती नहीं है,
वीरान पड़ा है, थका खड़ा है,
वो मिट्टी का घर, बिन छप्पर की छत !!!
------- Written on 20/11/2003
अनगिनत यादें अब भी दफन हैं इस मकान के आघोष में, जो बाहर चबूतरा और एक कमरा था, सुना है अब वहां पर कोई राहगीर नहीं बैठा करता, वहां से गुज़र कर सड़क अब शहर को जाया करती है!
और 5 मीटर मोटा इमली का पेड़ भी नसतो-नाबूत हो चुका है, कुछ लकडियाँ गांवों के घरो में जल चुकी हैं तो कुछ शहर के बाज़ार में बिक चुकी हैं !
---- नीरज भार्गव
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पौ फटा करती थी फ़िर एक नई सुबह हुआ करती थी,
श्वेत किरणों, बैलों की घंटी से फ़िर एक उज्वल दिन की शुरुआत हुआ करती थी !
खाट पे सोया करते थे, कम्बल को ओड़ा करते थे,
जाड़ा सुबहे बहुत सताता था, तब चाय का प्याला याद आता था !
कुँए पे नहाया करते थे, इमली पे खेला करते थे,
ज्यों-ज्यों दिन ढलता जाता था, कृष्ण धवल को ग्रस्ता था !
संध्या प्रभात का मंज़र फ़िर दोहराती थी,
घंटियों का स्वर, धूल का गुबार वो घर फ़िर महका देती थी !
वो घर था मिट्टी का, छप्पर की थी छत....!
पर अब ये मंज़र बस एक सपना है, वो घर अब न अपना है,
वीरान पड़ा है वो घर अब भी, उस घर में अब शाम ढली है !
लौटा नहीं है कोई मवेशी, घंटी का स्वर वीरान पड़ा है !
लीपा करतीं थीं दादी जिसको, तीन कमरे और एक रसोई थी जिस में,
अब आधी दीवारें खड़ी हुईं हैं, आँगन भी वीरान पड़ा है !
पौ फटती नहीं है, रात जाती नहीं है,
वीरान पड़ा है, थका खड़ा है,
वो मिट्टी का घर, बिन छप्पर की छत !!!
------- Written on 20/11/2003
अनगिनत यादें अब भी दफन हैं इस मकान के आघोष में, जो बाहर चबूतरा और एक कमरा था, सुना है अब वहां पर कोई राहगीर नहीं बैठा करता, वहां से गुज़र कर सड़क अब शहर को जाया करती है!
और 5 मीटर मोटा इमली का पेड़ भी नसतो-नाबूत हो चुका है, कुछ लकडियाँ गांवों के घरो में जल चुकी हैं तो कुछ शहर के बाज़ार में बिक चुकी हैं !
---- नीरज भार्गव
wah neeraj ji sachmuch apki is rachna ne mujhe apne bichde lamhe yaad dila diye ... bahut hi sundar rachna
जवाब देंहटाएंनीरज जी भावों का बहुत ही सही चित्रण किया आपने
जवाब देंहटाएंचूकीं मेरी भी पृष्ठभूमि आपके जैसी है, इसलिए अपने आप को आपकी रचना से जोड़ पाया
बहुत ही उम्दा भाव
@Akki - Bahut bahut shukriya
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