मंगलवार, नवंबर 17, 2009
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....
इस रोज़ के शोर ने मेरी आवाज़ छीनली है शायद,
या टूट गयीं हैं वो कुछ बची हुई नाज़ुक तारें,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....
रिश्ते में हमारी, ठंडक और धुंध पड़ गयी है शायद,
या दूर से आती रौशनी हमे अँधेरे का तोफा दे गयी है,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....
अपने सपनों की पतंगें पेंच लड़ा रही है शायद,
या कुछ धागे सुलझने की कोशिश में मसरूफ हैं,
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....
डूबती, उभरती और फिर बह जाती हूँ यादों में शायद,
या तुम्हारी यादें आँखों से मेरी रिस जाना चाहती हैं.
तभी तुम आज कल पलट कर नहीं देखते....
--नीरज
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बेहतरीन अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंwaaaw ....poetry to comunity par hi padh li thi ....par blog par ye dekhne aayi k tumne kis pic se ise sajaya hai ...nic..
जवाब देंहटाएंrishte mein hamari thandak aur dhundh pad gai hai.. behtareen misra... khoobsurat nazm
जवाब देंहटाएं