रविवार, अगस्त 23, 2009

ज़िन्दगी

क्यों होता है ज़िन्दगी में अक्सर
किनारे जो पास नज़र आते हैं
वो ही अक्सर दूर चले जाते हैं.
किनारे पे रह जाते हैं कुछ घिसे
बेजान पड़े चिकने पत्थर.

रात को आसमान में देखो तो
बस एक गहरी तन्हाई नज़र आती है.
तन्हाई में चाँद छूने को हाथ बढ़ता है
मगर हाथ बस मायूसी ही आती है.

बेरुखी खुद से ही ना जाने कैसे हो गयी
हम हम न रह सके हम मैं में खो गए.
आईने ने पुछा दिल का रास्ता हमसे
ग़म नशीं हुए इतना कि रास्ता भूल गए.

पथराई नज़रों से देखता रहा दीवार को,
आँखें तकती रहीं नीर बहता रहा.
हम कोसते रहे किस्मत को यहाँ,
रात कटती रही सांस जाती रही.

--नीरज

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