शनिवार, अप्रैल 24, 2010

ये रात है बड़ी





ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

इस खुदाई रात में हम आसमां देखते रहे,
कुछ तारे जगमगाते रहे कुछ यूँही टूटते रहे.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

उफक तक देखते रहे रास्ता तेरा,
अँधेरा कर गया बस फासला तेरा.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

--नीरज

शनिवार, अप्रैल 10, 2010

बातें वो अनकही सी



बहुत बार कही,
मगर कई बातें बेजुबां सी
लबो तक आने को लफ्ज़ ढूंढती रही .
बिलखते से जज्बात की तरह
जहन में कौंधती रहीं.

तुमने देखा नहीं शायद,
मेरी पलकों के साहिल पे
उन्हें खामोश बैठे हुए.
छूकर जो गुजरी यादो की बदली,
आँखों को समंदर करती रही.

बातें वो अनकही सी
तड़पती मोंज कि तरह.
पलकों को मेरी भिगाती रही.

--नीरज
Thanx to Vandana too who helped me with this creation. :)

शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं



गिरह में लिपटी हैं कुछ रात तुम्हारी,
कुछ कागज़ के पन्नों पे बिखरी हैं.
कुछ बारिश में भीग रहीं हैं,
कुछ मिटने का बहाना ढूंढ रहीं हैं.
आजाओ किसी रोज़ एक बार फिर तुम भी,
कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं.

सूखे लबों से कंप-कंपाती याद तुम्हारी,
मयखाने से भी आज प्यासी लौटी है.
लहर-ए-हिज्र में तनहा डूब रही है,
महफ़िल में वो भी तनहा घूम रही है
आजाओ किसी रोज़ एक बार फिर तुम भी,
कुछ यादें तुम्हारा रास्ता पूछ रहीं हैं.

--नीरज