बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

लाचारी


छोटी छोटी आँखों से उम्मीद
को रोज़ झांकते देखता हूँ,
आस के चमकीले कणों से
सने हाथ छिले देखता हूँ.
अंगार सी सड़क पे नंगे पैर
बचपन झुलसते देखता हूँ,
थर-थराती सर्दी में नंगे
जिस्मों को सिकुड़ते देखता हूँ.

नन्हे कंधे स्कूल के बस्ते से नहीं
मजदूरी के बोझ से झुके देखता हूँ.
पैसे की हवस में इंसान को
इंसान का दलाल देखता हूँ.
कर नहीं पता कुछ इनके लिए,
हाथ अपने लाचारी से बंधे देखता हूँ.

--नीरज

6 टिप्‍पणियां:

  1. नीरज जी अच्छा लिखा है आपने बधाई हो

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  2. इंसानी मजबूरियों को सार्थक ढंग से उकेरा है आपने।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  3. बहुत उम्दा रचना...

    पैसे की हवस में इंसान को
    इंसान का दलाल देखता हूँ.

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  4. ye pic khaan se dhoondhi ...tumhari poetry or lachari ka haal is pic ne hi bayaan kar diya ...
    gr88 poetry ....

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  5. Aap sabhi ka bahut bahut dhanyavaad jo aap log aaye aur saraha....aate rahiye ga... :)

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आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.