शनिवार, अप्रैल 24, 2010

ये रात है बड़ी





ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

इस खुदाई रात में हम आसमां देखते रहे,
कुछ तारे जगमगाते रहे कुछ यूँही टूटते रहे.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

उफक तक देखते रहे रास्ता तेरा,
अँधेरा कर गया बस फासला तेरा.
ये रात है बड़ी, मंजिल कहीं नहीं.
यहाँ काफिले बहुत, माज़ी कहीं नहीं.

--नीरज

20 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना ! नीरज जी आपकी कुछ रचनाएँ आज पहली बार पढ़ी है पढ़ कर अच्छा लगा

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  2. @Nilesh ji - Bahut bahut shukriya apna keemti samay mere blog ko dene ke liye aur sarahne ke liye.
    Aate rahiye ga. :)

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  3. बहुत सुन्दर...पसंद आई.

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  4. कुछ तारे जगमगाते रहे कुछ टूटते रहे..
    कमाल का थोट है.. ! बहुत शानदार

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  5. एहसास बहुत खूबसूरती से लिखे हैं....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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  7. aaj pahli baar padhi maine aapki rachna,
    sukhad anubhav raha...
    kafi achi lagi ye nazm.
    'apni bhavnao ko yu hi shabdo me pirote rahe,
    aage bhi aise hi likhte rahe'
    #ROHIT

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  8. हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.

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  9. @Sanjay Ji - Bahut bahut shukriya baahvon ko samajh ne ke liye aur aane ke liye... :)

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  10. @Rohit ji - Bahut accha laga ki aapko ye nazm pasand aayi. Aane k liye aur sarahne ke liye shukriya. Aate rahiyega... :)

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