मंगलवार, मार्च 23, 2010

निशानी




रात की गहराई में जाने कहाँ
रोज़ फिरता हूँ दर-बदर,
छीनली हैं नींद मेरी जहान
ने आँखों से इस कदर.

ख्वाबों को आँखों में संजोय,
सहेज के रखा है कब से.
सरहद पलकों की पार न करदे,
बहलाया है उनको शब से.

सजदा मेरा ये आखरी है तुझसे,
आतिश ने मेरे ख्वाब जलाए हैं.
अगर आओ कभी कब्र पे मेरी,
निशानी है जहाँ ज़िन्दगी मुस्कुराए है...

--नीरज

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