सोमवार, मई 31, 2010

फलक



न जाने कब ये शाम का गोला ढल जाए.
और एक स्याह रात की चादर सिल जाए.
करोड़ों जगमगाते टुकड़े पैबंद हों उस पर,
स्याह शामियाने पे नक्काशी खिल जाए.

तू रोज़ देखता है टक-टकी लगाए मुझे.
बढाऊँ हाथ जो ऊपर, तू छिटक जाए मुझे
किसी रोज़ पैबंद हो जाऊं शामियाने पर,
ए खुदा तू कभी फलक पे बसा आए मुझे.

--नीरज

10 टिप्‍पणियां:

  1. कम शब्दों में गहरी बात - बहुत सुन्दर।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. बहुत अच्छा लिखा है ...सुन्दर !!!

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  3. स्याह रात अपने दामन में दिन के सारे उजाले छिपा लेती है.फिर भी कही न कही से सितारे बन के आस्मां की चादर से उजाले झांकते रहते है.

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आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.