शनिवार, जनवरी 02, 2010

ख्वाब




रात की बेहोशी में मैंने कुछ ख्वाब 
संभाल के तकिये के सिरहाने रख छोड़े थे.
सोचा था होश आने पे भट्टी में
पका के पुख्ता कर लूँगा,
पर आँख खुली तो बेहोशी ने ख्वाब के 
चमकीले टुकड़े तकिये के सिरहाने 
रख छोड़े थे.

--नीरज 

3 टिप्‍पणियां:

  1. ओह!


    वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाने का संकल्प लें और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    - यही हिंदी चिट्ठाजगत और हिन्दी की सच्ची सेवा है।-

    नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!

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  2. Aap ko bhi Nav varsh ki bahut bahut badhai aur kriti par aane ke liye shukriya... :)

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  3. ख्वाब तो ख्वाब ही रहेंगे...जो हक़ीकत में बदल जाएँ वो ख्वाब ही कहाँ...वो तो बस इच्छाएँ कहलाएंगी...

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आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.