रविवार, जनवरी 24, 2010

घुंघरू




कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं
कुछ टूटी, कुछ झड़ी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की इमारत पे.
दरवाज़े पे हुई नक्काशी अब कुछ
झड सी गयी है,
छतों पे जड़े झूमर भी अब कुछ
टूट गए हैं, कुछ लदक गए हैं.

वो सफ़ेद चादरें, जो लाल कालीन
की शोभा बढाया करतीं थीं,
अब किसी कोने में मुच्डी पड़ी हैं.
आज भी छम छम की आवाजें
इन दीवारों से आती हैं.
कुछ टूटे घूंगरू आज भी
रंग महल में बिखरे पड़े हैं.
गजरे से गिरे फूल आज भी
रंग महल को महका रहे हैं.
कुछ फटी, कुछ उधडी हुई सी मैं,
आई हूँ गुज़रे वक़्त की चादर पे.

नवाबों का राज ख़त्म हो गया,
और यहाँ की रंगत खाख हो गयी.
ये रंगीन गलियां, ये चौराहे भी अब
तंग गलिओं में जा बस गए.
पर ख़त्म नहीं हुआ तो बस नज़रिया.
न जाने कब हमारे बच्चे फक्र
से सभी के साथ पढ़ा करेंगे?
लोग तिरछी निगाहों से नहीं देखेंगे?
पैदा होते ही लड़की की रूह नहीं मारेंगे?
कुछ थकी, कुछ दर्मन्दाह सी मैं,
लाई हूँ सवालों को ख़ुदा तेरे दर पे.


दर्मन्दाह - Helpless

--नीरज

6 टिप्‍पणियां:

  1. behad sunder rachna hai neer ..bikul tumhare puraani rachnao k andaaj ko yaad dilati hui ....
    ese hi likhte raho dost ek alag andaaj k saath ..:):)

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  2. ग़ज़ब के शेर बुने हैं आपने .......... काफिया बहुत ही खूबसूरती से निभाए हैं ........
    सब के सब शेर ..... बहुत नये अंदाज़ के हैं ........

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  3. absolutely fantastic......na jane kyon padhte hue aisa laga ki gulzaar saab ka andaaz ho.....lagta hai aap kafi inspire hai unse

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  4. Shukriya Priyanka... :)
    Ji bilkul inspire hun, wo hain hi inspire karne laayak shaks.... :)

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आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.