गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

आबरू

कुछ मनचली साँसों ने
कली की खुशबू छीनली।
हैवानियत ज़ोरों पे थी
रूह लुट गयी उस रोज़

जिस चाँद की कसमें खायीं
वो बस तकता रहा.
सितारे खिल खिलाते रहे
जहान लुटता रहा उस रोज़

चीखती, छट-पटाती जोर से
रहम मांगती रही.
चिन्दियाँ उड़ती रहीं
जिस्म खाख़ होता रहा उस रोज़


उठी...गिरी...कुछ घिसती
खड़ी हुई....फिर चली.
तन ढांप कर रूह खड़ी थी
शहर के चौराहे पे उस रोज़
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हजारों यूँही रोज़ लड़तीं हैं,
गिरतीं हैं और उठतीं हैं
अस्मत की खातिर.
कोई इन हैवानों को जा बता आये
बहने और माँ तुम्हारी भी हैं,
आबरू और रूह उनकी भी है,
सुना है...तुम्हारे मौहल्ले में चौराहे भी है....

-- नीरज

2 टिप्‍पणियां:

आपके विचार एवं सुझाव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं तो कृपया अपने विचार एवं सुझाव अवश दें. अपना कीमती समय निकाल कर मेरी कृति पढने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.